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________________ पुरुषार्थ सिधुपाय है इत्यादि । यद्यपि चरणानुयोग या लोकपद्धतिसे ( व्यवहार दृष्टिसे ) ऐसा रूपक है कि गुरु शिष्यका उपकार करे, और शिष्य गुरुकी आज्ञाका पालन करे, अर्थात् एक दूसरे पर जिम्मेवारी आती है, जो उचित है वैसा करना ही चाहिए। किन्तु मिश्चयनयसे अपनी-अपनी जिम्मेवारी अलग-अलग है, स्वयं ही समझदारीसे हेय उपादेयका ख्याल रखते हुए कार्य करना चाहिए। दूसरे पर छोट देने से एनं स्वर्ग पानी कागदी बन जानेसे कार्य सिद्ध नहीं होता उल्टा ठगाया जाता है ऐसा समझना चाहिए। निश्चयनयसे मोक्षमार्ग एक और एकरूप (वीतरागतारूप) ही है। जिसका कथन व्यवहारियोंने सरामरूपसे किया है और निश्चयनयावलम्बियोंने बीतरागरूपसे किया है अर्थात् एक ही वस्तुका दो तरह से वर्णन किया है अतः वर्णन ( कथन ) दो तरह का है । वस्तु दो तरह की नहीं है यह सारांश है । इसका खुलासा अन्यत्र किया गया है देख लेना अस्तु ॥२०॥ नोट-श्रावकधर्मके भेद व उनका स्वरूप आगे प्रकरण ३७ वें श्लोक से लगाय विस्तारके साथ किया गया है ( चारित्राधिकारमें तथा १२ बारह व्रतों से श्वावकको ११ ग्यारह प्रतिमाएँ ( कक्षाएं ) बनती हैं, उनका कथन भी इलोक नं० १७४ में किया गया है सो देख लेना । श्रावकको प्रतिमाओंका धारण करना अनिवार्य रहता है। व्रताचरण की नाव नहींसे डलती है, उसे मेष्ठिक थावक कहते हैं। आचार्य कहते हैं कि मोक्षमार्गी ( मुमुक्षु ) का कर्तव्य है कि वह सीन भेदरूप मोक्षमार्ग से पहिले सम्यग्दर्शन की आराधना { प्राप्ति ) करे क्योंकि वह मूल है । तत्रादौ सम्यक्तं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥२१॥ पद्य सम्यक्त्वको प्राप्तव्य जानो मूल भावक धर्मका । जिस प्राप्त होते उदय होता काम अरु चारित्रका इस माँसि क्रम है मार्गका जो 'भोक्षमार्ग' विख्यात है। कर हस्तगत उसको प्रथम ही गुणी शिवपुर जाम है ॥२१॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [सत्र ] तीन भेदरूप मोक्षमार्ग मेसे [ आदौ अनिलबस्नेन । सम्यक्रवं समुपाश्रयणीयम् ] सबसे पहिले हर तरह प्रयत्न करके सम्यग्दर्शनको प्राप्त करना चाहिए, ( श्रावकका यह कर्तव्य है ) [ यतः ] क्योंकि [तस्मिन् सवि एष ज्ञान परिभवति इस सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेपर अवश्य ही सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र प्रकट होता है अर्थात कान और चारित्र दोनों सम्यक्पदवीको प्राप्त कर लेते हैं, यह सारांश है ॥२१॥ .. भावार्थ- सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गकी पहली सीड़ी है, उसके विना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं होते किन्तु मिथ्या ही रहते हैं और जब सम्मादर्शन प्राप्त हो जाता है तब वही शाम व ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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