SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन चारित्र जो उस समय मिथ्याज्ञान मिथ्याचारित्रके रूप में रहता है, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रके रूपमें परिणत हो जाता है अर्थात उनका नाम व भाव (विशेषण ) बदल जाता है. यह विशेषता उत्पन्न हो जाती है। इसलिए सबसे पहिले उस सम्यग्दर्शनको ही मोक्षमार्गी भव्यात्माको प्राप्त करना चाहिये । तभी उसका पुरुषार्थ सफलः समझा जाता है ( समझा जायगा)। फलतः मोक्षमार्गका वही मूल है, उसके बिना सद निष्फल है ( साध्यके साधक नहीं है । और यह नियम है कि जिसको एक बार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है यह नियम से अर्धपुद्गल परावर्तन कालके भीतर मोक्ष चला जाता है आगे वह संसारमें नहीं रह सकता । सम्यादर्शनका लक्षण आचार्य श्री स्वयं आगे बतानेवाले हैं । २२ में ।। अतएव यहां बताना व्यर्थ है । यहाँपर तो उसको प्राथमिकता और आवश्यकता मात्र बतलाई गई है किम्बहूना । इस श्लोकमें 'यलेन' इस पद विशेषके रखने का क्या महत्त्व है ? यह विचारणीय है। साधारणतः हर एक कार्य यत्स्व या पुरुषार्थ पूर्वक तो होते ही हैं..कोई नई बात नहीं है फिर 'यत्नेन' यह पद लिखनेकी क्या विशेषता है, सो बताते हैं। बत्नका अर्थ या प्रयोजन यह है कि कोई जीवनको सफल बनाना चाहता है तो उसको चाहिए कि वह मोक्षके कारणभत 'सम्यग्दर्शन'को पहिले प्राप्त करे और जिस तरहसे भी हो प्राप्त करे चाहे उसके पोछे वर्तमान पर्यायको भी छोड़ना पड़े तो भी निर्मोह होकर छोड़ देवे। इसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शनका मूल्य सबसे अधिक है, कारण कि उसी प्रा हो जाने सारी बार जनमरगाए जाती हैं। लेकिन उसकी प्राप्तिका यही एक उपाय है कि वह मुमुक्षु भन्यजीव पेश्तर अपनी पर्याय बुद्धि ( संयोगी पर्यायमें एकत्त्व बुद्धि व राग द्वेषादिभाव ) छोड़ देवे, जो अनादिकाल से हो रही है तथा अपने शुद्ध ज्ञायक उपयोगको लगावे अर्थात पर्यायष्टि छोड़कर द्रव्यदुष्टि करे अथवा अशुद्धष्टि छोडकर शुद्धदष्टि करे, तभी पूरुषार्थकी सफलता है। यह पुरुषार्थ जीबने अभीतक नहीं किया है जो सम्यक् पुरुषार्थ है और जिससे संसार छूटकर मोक्षकी प्राप्ति होना है। अतएव यत्न पद द्वारा उसीपर जोर दिया गया है। यद्यपि बस्तुका परिणमन स्वतन्त्र है, वह किसीके अधीन नहीं है-- उसके लिये निमित्सकी आवश्यकता नहीं होती वह अपने आप होता रहता है तथापि व्यवहारमयसे उसको पुरुषार्थ (निमित्त ) के अधीन कहा जाता व माना जाता है, उसी दष्टिसे यहां यत्नको मुख्य बतलाया गया है। तथा हमेशा एक-सा उपयोग नहीं रहता बदलता रहता है, अतएव पर्याय की दृष्टि होनेपर इस प्रकारकी रागबुद्धि ( कवाय या कर्मधारा) स्वयं प्रकट होती है कि हम · ऐसा पुरुषार्थ करें (निमित्त मिलावें । और उसी प्रकार योगोंकी प्रवृत्ति भी वह करने लगता है " इत्यादि परन्तु धद्धा में परिवर्तन नहीं होता यह नियम है। . जब सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेको बुद्धि जीव (आत्मा) को हो तब समझना चाहिये कि अब इसका भला (कल्याण ) होने वाला है और उसकी सूचना उस जीवको स्वयं शुद्ध स्वसंवेदन द्वारा मिल जाती है, जिसे मानस प्रत्यक्ष या स्वानुभव कहते हैं, और उसका आलम्बन एकमात्र आत्मा ही रहता है। पश्चात् उसका संस्कार पड़ जानेसे बारम्बार स्मरण होकर उसीकी ओर उपयोग जाता रहता है, जिससे वह एकदम भूल नहीं जाप्ता । फलतः सच्चा प्रकाश सम्यग्दर्शनके स्व
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy