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________________ ८६ पुरुषार्थसिद्धपाय प्राप्त होनेपर ही आत्मामें होता है, जिससे अनादिकालीन मिध्यान्धकार नष्ट हो जाता है व सही २ दिखने लगता है उसकी बदोलत सुमार्ग पर चलनेसे अभीष्ट स्थानकी प्राप्ति हो जाती है अतएव सबसे बड़ा प्रथम उपकारी सम्यग्दर्शन ही है ऐसा निश्चय कर लेना चाहिये | अस्तु ||२१|| सम्यग्दर्शन पहिला अधिकार आचार्य निश्चय और व्यवहार दो नयोंकी अपेक्षा से सम्यग्दर्शनका स्वरूप बताते हैंजीवाजीवादीनां तच्चार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ||२२|| पद्म विपरीतता से रहित जो श्रद्वान है जीवादि का सम्यक्त्व उसीका नाम है जो रूप हैं व्यवहार का ॥ यवहार हैं इसलिए कि सम्बन्ध है पका । निश्चय उसे कहना जहाँ, सम्बन्ध हो निजश्वका ॥ २२ ॥ अन्वय अर्थ --- [ जीवाजीवादीनां सवार्थानि ] जीव अजीव आदि सात तत्त्वोंका जो [ विपरीताभिनिवेश विश्रितं श्रद्धानं ] विपरीत ( मिथ्या ) अभिप्राय ( धारणा-मत्सव्य ) से रहित श्रद्धान किया जाता है वह व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है, कारण कि वह पराश्रित है अर्थात् मोक्षमार्गोपयोगी जीवादि सात तत्वोंके श्रद्धानरूप है तथा [ यत् आत्मरूप ] जो सिर्फ परद्रव्योंसे भिन्न एक अपनी (निज ) आत्माका श्रद्धान है वह निश्चय सम्यग्दर्शन है, । [ तत् सदैव व्यम् ] सो वह श्रद्धान सदैव करना चाहिए अर्थात् वह अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना आत्मकल्याण नहीं हो सकता ऐसा आचार्यदेव' कहते हैं ||२२|| भावार्थ — निश्चय सम्यग्दर्शन में मिथ्या अभिप्रायसे रहित सिर्फ एकस्व विभक्तरूप (परसे free a अपने गुणोंसे अभिन्न ) अपनी आत्मा श्रद्धानकी मुख्यता रहती है जो स्वाश्रित कहलाती है | और व्यवहार सम्यग्दर्शनमें मिथ्या अभिप्रायसे रहित पर द्रव्यों ( सात तत्त्वों ) श्रद्धानको मुख्यता रहती है जो पराश्रित है, यह खास मैत्र समझना चाहिए। यद्यपि दोनों तरहकी श्रद्धा में प्रदेशभेद आत्मामें नही पाया जाता है-एक आत्मामें हो सभी तरह की श्रद्धाएँ रहती हैं, अतएव मेद नहीं मानना चाहिए अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शनमें भेद मानना व्यर्थ हैं ऐसी आशंका हो सकती है ? तथापि विकल्परूप श्रद्धा होनेसे भेद १. एक नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णाननस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ॥ सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा व तावानयं । तमुक्त्वा नवतरवसन्ततिमिमात्मायमेकोऽस्तु नः ॥ ६ ॥ समयसारकलश | 刘
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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