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________________ पुरुषार्थसिद्धधुपाय आता है ) जिससे जीव उसोमें विभोर होकर अन्य सबकी ओरसे विमुख हो जाता है। वह निराकुल सुखका स्वाद लेता है और उसका संस्कार आत्मामें पड़ जाता है अर्थात् वैसो धारणा ( एकत्त्व-विभक्तरूप) उसके ज्ञान में हो जाती है, जिससे संयोगीपर्याय में उसका उपयोग बदलने . पर भी अर्थात् रागादिरूप होने पर भी एकत्त्व-विभक्तरूप शुद्ध स्वरूपका स्मरण बराबर हर समय आता रहता है और वह यथार्थताको ओर उपयोगको बारंबार लाता है अर्थात् वह भूल नहीं पासा. है---उसका सत्य श्रद्धान बराबर कायम रहता है, जो हमेशा हेय-उपादेयको बताता रहता है। इस तरह सम्यग्दृष्टिका उपयोग बदलने पर भी श्रद्धान नहीं बदलता, जिससे सम्यग्दृष्टि बना रहता है व वैराग्य ( अचि ) साथमें रहने से असंख्यात गुणित निर्जरा प्रति समय होती रहती है, यह खुलासा है, इसको समझना चाहिये। ज्ञायक स्वभावका आलम्बन लेना ही हितकारी है अतएव उसीका प्रयास करना चाहिये, यही विवेकशीलता है, अस्तु ॥ ४० ॥ आचार्य पाँच पापोंका एकदेश व सर्वदेश त्याग करने वालोंका नाम व पय बतलाते हैं। निरतः कास्न्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविरतिनिग्तस्तस्यामुपासको भवति ।। ४१ ।। पद्य सर्वदेशका त्याग करत जो वे यतिवर कहलाते हैं। और उसी में तत्पर रहते, समयसार पद पाने हैं। एकदेशका त्याग करत जो थे श्रावक कहलाते हैं। और उसी में तत्पर रहते, नाम उगसक पाते हैं ॥ ११ ॥ अन्वय अर्थ-[ कारस्य निवृत्ती निस्तः अयं समयसारभूतो थमिः भवति ] पाँचों पापोंकि त्यागने में जो हमेशा दत्तचित्त ( सत्पर ) रहता है, वह आंशिक कार्य समयसाररूप ( शुद्धोपयोगी) थति हो जाता है ( सकलनती बन जाता है। [तु या एकदेशविरतिस्तस्यां निरसः उपासको भवति ] और जो पाँच पापोंके एकदेश त्यागने में दत्तचित्त (तत्पर उद्यमशील रहता है. वह उपासक ( श्रावक-देशवती ) कहलाता है या हो जाता है, यह पदभेद है ।। ४१ ।।। ___ भावार्थ-चारित्रका दर्जा सबसे ऊंचा है, यह तो निर्विवाद है ही, किन्तु उसमें भी पद और पालनाके अनुसार भेद पाया जाता है। जैसे कि जो मूलभूत पांच पापोंका पूर्ण त्याग करते हैं वे यति या मुनि छठवें गुणस्थान बाले कहलाते हैं वे समयसाररूप शुद्धात्म्ाकी साधना करनेवाले. होते हैं। तथा जो ऐसे जीव हैं कि वे उक्त पांच पापोका एकदेशः ( अल्प) त्याग करते हैं के उपासक (श्रावक ) नामधारी पंचम गुणस्थान वाले अश्या प्रतिमाधारी होते हैं। इस प्रकार: चारित्र और चारित्रधारियोंके दो भेद माने जाते हैं व दोनों मोक्षमार्गी हैं। और सामान्यतः श्रावक ( गृहस्थ ) के नाते चौथा, पाँचाँ, छठवां तीनों गुणस्थान वाले मोक्षमार्गी हैं। कारण कि श्लोक
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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