SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . .. ........ ६५५ सम्यकचारित्र नं० २० में धर्म धारण करना प्रत्येक श्रावक ( शिष्य या श्रोता ) का कर्तव्य है, चाहे वह प्रती हो या अवती हो उसको रत्नत्रय धर्मका धारण करना अनिवार्य है। क्योंकि धर्मसे ही उद्धार होता है, दूसरा कोई साधन उद्धारका नहीं है और सबमें नीवरूप सम्यग्दर्शन है ऐसा समझना चाहिये। अस्तु । जिन भव्य जीवोंकी जैसी श्रद्धा व शक्ति हो वैसा ही बड़ा छोटा चारित्र अवश्य ही धारण करना चाहिये, तभी लाभ होना संभव है। इसके साथ ही अनेकान्त (स्याद्वाद-कथंचित् ) दृष्टि रखना भी अनिवार्य है, जिससे हानि न हो और साध्य ( अभीप्ट ) की सिद्धि हो, ख्याल रखा जाय, किम्बहुमा । स्पष्टार्थ ( खुलासा ) चारित्रके ( १ ) द्रध्यचारित्र ( २) भावचारित्र दो भेद हैं। द्रव्यचारित्र, करणानुयोगकी पद्धसिके अनुसार बाह्य आचरण सुधारनेसे सम्बन्ध रखता है, अतएव वह आचररूप रहता है । भावचारित्र, वृत्तिरूप होता है अर्थात् करणानुयोगकी पद्धतिके अनुसार मनोवृत्ति या उपयोग सुधासी क्षेता है। निमित्तमिलित सम्बन्ध रहता है, ऐसी द्रव्यचारित्र और भावचारित्रकी परस्पर संगति पाई जाती है जबतक अशुद्धदशा रहती है, शुद्धदशामें नहीं। इसके विपरीत द्रव्यचारित्र उसको कहा जाता है जो भावके अर्थात् सम्पग्दर्शनके विना होता है। वह कश्यको मन्दता या तीव्रता दोनोंसे होता है, ( उसमें दोनों निमित्त हो सकते हैं ), वह मोक्षका मार्ग नहीं होता, अत: उसकी मोक्षमार्ग में कोई कीमत या गिनती नहीं है। इस विषयमें बारीक छानबीन करने की जरूरत रहती है, वह हर एककी बुद्धिगम्य नहीं है। अतएव यह व्याप्ति नहीं मानी जा सकती कि आजकल सब द्रध्यलिंगी जैन साधु होते हैं इत्यादि, किन्तु भाचलिंगी भी होते हैं ऐसा मानना चाहिये, क्योंकि उनका अस्तित्त्व अन्ततक रहेगा लेकिन सभी वीतरागी निरतिचारी .. नहीं हैं न हो सकते हैं। असएव कषायभावसे वे श्रुटियां कर सकते हैं या उनके त्रुटियाँ होती हैं। किन्तु उससे मूल ( सम्यग्दर्शन ) भंग नहीं हो जाता। हां, जो गलती करके भी उसे गलती न माने यह अवश्य हठी व द्रष्यलिंगो है। फलतः सम्पष्टिका वह मुख्य पहिचानका चिह्न है-कि वह हर समय सतर्क रहे, और अपने दोष गुणोंकी उद्वेलना ( दतौनी )करे, तथा मलतीपर पश्चात्ताप करे, एवं उसके सुधारने का यथाशक्ति प्रयत्न करे. आत्मकल्याणको ओर दष्टि रखे. हाँ एक अशद्ध दृष्टि ही न ररने, शुद्धि दृष्टिको भी लक्ष्य में रखे, ( उपयोग वैसा करे )1 ऐसा करते-करते हो बड़ी मुश्किलसे पुराने संस्कार,छूटते हैं, और नये संस्कार जमते हैं. और उनसे आत्मोद्धार होता है। इसके सिवाय अकेले चिन्तन्वन या विचारसे ही सबकुछ नहीं हो जाता, करनेसे ही होता है, और वह करना अशुद्धताका छोड़ना रूप है, एवं उसके लिये पुरुषार्थ करना रूप है, प्रसादी असावधान रहना उचित नहीं है, अस्तु । सम्यग्दृष्टिको ही पेश्तर पाँच पापोंसे अरुचि होती है, उन्हें वह विकार व परद्रश्य समझकर छोड़ना चाहता है ( उनसे विरक होता है तथा बाहिर भी यथाशक्ति योगोंके द्वारा ( मन-वचन
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy