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________________ १. सम्यग्दर्शनाधिकार विशेषार्थ-ज्ञान दो तरहका होता है-(१) अक्रममावी और ( २) क्रमभावी । जो एक ही समयमें क्रमरहित एकसाथ सम्पूर्ण द्रव्यों, उनके समस्त गुणों और त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको हस्तामलककी तरह प्रत्यक्ष ( साक्षात् ) जानता है, जिसे केवलज्ञान, अनन्तज्ञान या सायिकज्ञान भी कहते हैं, वह अक्रमभावी ( युगपत्सर्वप्रतिभासनरूप ) तत्त्वज्ञान है और वह प्रमाण है तथा जो भिन्न-भिन्न समय में क्रमसे द्रव्य-गुग-पर्यायोंको परोक्ष ( असाक्षात्-इन्द्रियादि द्वारा ) जानता है वह क्रममावी ( अयुगपत् प्रतिनिरूप) सवर नगर वह भी समान्दनयसे संस्कृत होनेके कारण प्रमाण है । इसे सीमितज्ञान क्षायोपशमिकज्ञान और स्याबादनयरूपज्ञान भी कहते हैं । अथवा सर्व प्रत्यक्षज्ञान या क्षायिकज्ञानका ही नाम अक्रममादीज्ञान है और एकदेशप्रत्यक्षज्ञान या क्षायोपसमिकज्ञानका नाम क्रमभात्री ज्ञान है। इस प्रकार दोनों ही ज्ञान पदार्थोंको प्रकाशित करने वाले होनेसे प्रमाण हैं। फिर भी अक्रमभावी ज्ञानमें प्रमाणता स्वाचित है-मात्र आत्मापेक्ष होनेसे स्वयं है और वह निश्चय या साक्षातरूप है । तथा क्रमभावोज्ञानमें प्रमाणता वक्ताके वचन ( स्याद्वादरूप कथनों) पर निर्भरित है । अतएब वह व्यवहाररूप या असाक्षात् (परोक्ष ) रूप है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब क्रमभावी ( स्याद्वादरूपं ) ज्ञान और अक्रममावी ( केवल ) ज्ञान दोनों समस्त पदार्थोके प्रकाशक हैं तो दोनों समान एक हो सिद्ध होते हैं, उन्हें पृथक्पृथक् माननेको आवश्यकता नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि क्रमभाबी तो क्रमश: और परोक्ष ( असाक्षात् )उन्हें जानता है किन्तु अक्रमभावी युगपत् और साक्षात् ( प्रत्यक्ष ) जानता है । तात्पर्य यह कि इन दोनों ज्ञानोंमें साक्षात् और असाक्षात्का भेद है । अत: दोनों सम्पूर्ण पदार्थों के प्रकाशक होनेपर भी उक्त भेदके कारण पृथक-पृथक् कहे गये हैं । यथा भ्यालादकालज्ञाने सर्वतप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच ह्यवस्थम्यसमं भवेत् ॥ -आप्तमी १०५। दूसरा प्रश्न यह है कि क्रमभावी झान जब पदार्थोको असाक्षात् जानता है तो उसे प्रमाण नहीं माना जाना चाहिए ? इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार गंगाका जल विभिन्न नहरोंमें विभक्त हो जाने पर भी बह मंगाका ही जल माना जाता है, भले ही नहरोंके कारण उसमें भेद आ जाय, पर वह गंगाका हो जल कहा जायगा, उसी प्रकार स्याद्वादरूप शान अक्रमभावी ( केवल ) ज्ञानका अंश होनेसे वह प्रमाण है । इसके अतिरिक्त विषयभूत पदार्थ दोनोंके एक-से हैं, भिन्न नहीं। इस तरह पूर्वोक्त अक्रमभावी परज्योति ( केवलज्ञान ) और परमागम ( क्रमभावी स्थाद्वाद ) ज्ञानमें अंश-अंशीका परस्पर सम्बन्ध होनेसे आचार्य महाराजने दोनोंका जयकार एवं नमस्कार किया है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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