SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन ऐसा समझना चाहिये इत्यादि, निश्चय और व्यवहार तथा सम्यग्व्यवहार व मिथ्या व्यवहारमें फरक जानना सम्यग्ज्ञान है। सर्वत्र संगति या एकार्थताका बिठालना बुद्धिमानी है। निश्चय और व्यवहारके स्वरूप में एवं भिधारमें बहुधा लोग भूले हुए हैं जैसा कि इलोक सं०५ में आचार्य देवने कहा था, अस्तु पुनः संक्षेपमें एक बार दोनोंका स्वरूप ऐसा है कि १--जो पदार्थ जैसा या जितना है, उसको वैसा या उतना ही जानना व मानना निश्चय है। उपचार और व्यवहारमें अभेद विवक्षा मानो गई है यथा -----जो पदार्थ जैसा व जितना है, उससे कमको भी वैसा उसना मानना व्यवहार है। और ३-जो पदार्थ जैसा है, उससे उल्टा (विपरीत) उसको मानमा मिथ्यात्व है, इसमें मिथ्या श्रद्धान मुख्यतया पाया जाता है यह भेद है किम्बहुना लोकाचारका निश्चय व्यवहार दूसरे तरहका होता है। नोट-निश्चय सम्यग्दर्शनके निश्चय रूप आठ अंग होते हैं और व्यवहार सम्यग्दर्शनके व्यवहार रूप आठ अंग होते है ! ऐसी स्थिति में व्यवहार सम्यग्दर्शनको निश्चय सम्यग्दर्शन मानना भी उपचार है तथा व्यवहार सम्यग्दर्शनके एक अंगसे सम्पूर्ण व्यवहार सम्यग्दर्शन मानना भी उपचार है एवं निश्चय सम्यग्दर्शनके एक अंगसे सम्पूर्ण निश्चय सम्यग्दर्शन मानना भी उपचार है इत्यादि सर्वत्र जानना चाहिये । सारांश थोड़ेको बहुत मानना या बहुत को थोड़ा मानना यह सब उपचारका रूप है अस्तु 1॥ ३० ॥ (२) सम्यग्ज्ञान अधिकार आचार्य, आठ अंग सहित सम्यग्दर्शनका निरूपण करने के पश्चात् आठ अंग सहित सम्यम्ज्ञानका कथन प्रारंभ कर रहे हैं क्योंकि बह मूलभूत है उसको पहिले प्राप्त करना चाहिये ( अवश्य प्राप्तव्य है ! यह बताते हैं... इत्याश्रितसम्यत्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरूप्य यत्नेन । आम्नाययुक्तियोगैः समुपास्यं नित्यमात्महितैः ॥३१॥ पा पूर्वविधि से सम्यग्दर्शन, प्राप्त जिन्हों को हो जाता। फिर भी अपने हित के खातिर, सम्यग्ज्ञान शेष म्हसा ।। भत: उसे भी प्रयास करत , स्वरूप निश्चित कर पेश्तर 1 आम्नायाविक द्वारा उपका स्वरूप होत है असिंहदसर ॥३१॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि जिन्होंने [ इत्याश्रितसम्यक्त्वैः आत्महितैः ] पूर्वोक्त आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लिया है और आत्मकल्याण के इच्छुक हैं, उनको चाहिए १. बहुत मजबूत अटल ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy