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________________ जीव व्यका लक्षण ४५ प्रकट होता है ( परचतुष्टको अपेक्षा रखता है ) इत्यादि दोनोंका अर्थ समझना। इससे भिन्न सद्भाव रूप या अभाव रूप अर्थ नहीं समझना जैसा कि अन्यत्र लिखा है अस्तु । यथा अभावरूप भुणोंको प्रतिजीवी गुण काहते हैं, ऐसा जो लक्षण लिखा है वहाँ पर अभावरूपका अर्थ, अनुजीवो गुणों के अभावरूप या प्रतिपक्षी रूप अर्थ समझना चाहिए अर्थात जो अनुजीवी रूप नहीं हैं। इसीसे उनका नाम प्रतिजीवी' मार पाय हि जीप टम्ग (आत्मा) का जीवन उनके आश्रित नहीं है ऐसा स्पष्ट समझना चाहिए ।। ९ ।। निश्चयनयसे पुनः जीवका स्वरूप बताते हैं... परिणममानो नित्यं ज्ञानवियतैरनादिसंतत्या । परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥१०॥ पद्य अपनी पर्यायों का कर्ता द्रव्य हमेशा होता है। उनही का वह मोका होता भिम नहीं सब थोना है 14 जीव द्रव्य भी का मोक्ता ज्ञानादिक पात्रों का। है अनादिका नियम अकृत्रिम हिस्सा नहीं परायों का १०॥ अन्वय अर्थ-[स जीवः ] निश्चयनयसे वह जीव द्रव्य | निस्थं अनादिसंतस्या ज्ञान विवः परिणममान: ] हमेशा अनादिकालसे अस्त्रण्ड सन्तानरूपसे (धारावाहिक ) ज्ञानकी पर्यायों द्वारा परिणत हो रहा है। त्र] और [ स्वेषां परिणामानां कर्ता मौका भवति ] उन अपनी पर्यायोंका ही वह स्वयं कर्ता तथा भोक्ता होता है, अन्यका नहीं, न अन्यका कोई सम्बन्ध है, ऐसा समझना चाहिए 11१०॥ भावार्थ-वास्तविकरूपसे विचार करनेपर यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी २ गुणपर्यायोंका ही धनो कर्त्ता व भोक्ता है अन्यका कदापि नहीं है यह वस्तुस्वभाव है। यदि कहीं हर एक वस्तु दूसरे की कर्ता व भोक्ता हो जाय या होने लगे तो तमाम लोककी व्यवस्था हो बिगड़ जाय, कोई भी कार्य नियमित न रहेगा, जिससे एक तरहको अराजकता सरीखी उत्पन्न हो जायगी, सुखशान्तिके दर्शन न होंगे, संसार दुःखी दरिद्री हो जायगा इत्यादि । अताव वस्तु अपनी मर्यादा कभी नहीं छोड़ती अटल रहती है उसके लिए किसी व्यवस्थापक या नियन्ताको आवश्यकता नहीं रहती अतः वस्तु सब स्वतन्त्र है व स्वतः सिद्ध है, परकृत ( ईश्वरादिजन्य ) नहीं है । देखो जीवद्रव्य ज्ञानमय है अतएव सदैव वह अपनी ज्ञानपर्यायके साथ रहता है ज्ञानको नहीं छोड़ता अन्यथा यह अज्ञानी ( ज्ञानशून्य जड़ ) हो जाय जो असम्भव है कभी झानी अज्ञानी नहीं होता और अज्ञानी ज्ञानी नहीं होता यह पनका नियम है। इसके विरुद्ध किसी शक्ति विशेष ( ईवकरादि ) के द्वारा अन्यथा हो जाता है ऐसा कहना मूर्खता है क्योंकि वस्तुके स्वभावको कोई बदल नहीं
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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