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अतिचारप्रकरण
३०२ हैं, अतएव अतिचार भी लग जाता है, परन्तु प्रतिमारूप में अतिचार नहीं लग सकता । प्रतिमारूपमें बराबर तीन काल निरतिचार सामायिक करना पड़ता है और शिक्षायत में दो काल (सुबह व शाम ! सामायिक करनेका नियम है यह मोटा मेद है। लेकिन पाठ मंत्र आदि शुद्ध पढ़ना चाहिये अन्यथा अतिचार लग जायगा तथा योगक्रिया भी योग्य होना चानिये । अर्थात् मन:शुद्धि-मुखशुद्धि ( जूठे मुंह नहीं ) कायशुद्धि: ( हाथपांव प्रक्षालन करना या धोना ) आदि सब विधिपूर्वक होना चाहिये, स्थान, काल आदि भी अनुकूल होना चाहिये तभी सामायिक उपयोग लग सकता है किम्बहुना। योगोंकी प्रवृत्ति कषायके अनुसार होती है। अतएव पेश्तर कषाय बन्द होना चाहिये एवं विकल्प कम होना चाहिये तथा विकल्प था इच्छा पूर्ति के लिये योगोंकी प्रवत्ति भी कम होना चाहिये। ऐसी स्थिति में उपयोग स्थिर हो सकता है और सामायिक बन सकती है, कर्मोकी निर्जराका यही एक अद्वितीय उपाय (साधन) है। चित्त या उपयोगको स्थिर किये बिना सामायिक नहीं हो सकती। फलतः उस समय आरंभ परिग्रहादिका कम करता अविवार्य है यह निष्कर्ष है अस्तु । सामायिक शिथिलाचार नहीं होना चाहिये, सावधानी रहनी चाहिये ।। १९१॥ आगे---प्रोषधोपवास नामक दूसरे शिक्षावतके ५ पाँच अतिचार बसलाते हैं ।
अनवेक्षितानमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्गः । स्मृत्यनुपस्थापनमनादरश्च पंचोपवासस्य ॥ १९२ ॥
पञ्च श्विन देखे, श्रिन शो यस्तु-ग्रहणकरन पहिला जानो। इसी तरह संतस्तरका करना, मल उत्सर्ग साथ मानो। विधी मूलना अनादर कस्ना, अतीचार पाँचों होने ।
इनके स्थान प्रोषधश्रतमें, दोष नहीं कोई लगते # अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अनवेक्षिाप्रमार्जितमादान ] बिना देखो बिना शोधी (मुलायम बोजसे झारना फटकारना-निगाहसे देखना जरूरी है परन्तु प्रमादसे वह नहीं करना ) वस्त । पुस्तक-नजनादिके वर्तन-उपकरण आदि को ग्रहण करना तथा संस्तरः उत्सर्ग: 1 बिना देखे शोधे जमीन पर जहां-तहाँ विस्तार करना ( चटाई वगैरह बिछा देना) [च स्मृत्यनुपस्थापनमनादरु ] और स्मरण न रखना अथात् भूल जाना व आदरभाव (विनय उत्साह ) नहीं रखना जिपवासस्य पंच ये पाँच अतीचार उपवास अर्थात प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतके हैं, इनको त्यागना चाहिये ।। १९२ ॥
भावार्थ-प्रोषधोपवास शिक्षाबतके ५ पाँच अतिचारोंमें भी स्मृति अनुपस्थान तथा अनादर' ये दो अतिचार बतलाये गये हैं जो पहिले सामायिक शिक्षादतमें भी बतलाये गये हैं। इससे
१. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजतोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानावरात्यनुपस्थानानि ||३४॥त. सू० अ०७