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________________ परिग्रहपरिमाणावत चतुष्टय जुदा है तब कार्य भी उसके जुदे-जुदे है ऐसा तश्य समझना चाहिये । हाँ सामान्य विवक्षासे एक कह दिया जाता है। परन्तु यथार्थ बात नहीं है। तभी तो अनंतानुबंधो कषायके चार भेदों में से किसी एक कषायका उदय आनेपर सभ्यश्चद्धासे शिथिल होकर मिथ्यात्वको ओर नोचेको चतुर्थ गुणस्थानवाला जाता है । यह सैद्धान्तिक चर्चा है ( सम्मत्तरयण पन्वय इत्यादि ) व आदिम सम्पत्तला ( इत्यादि गोल जीवकांड गाथा १९२० ) देखना चाहिये । चरित्रको अपेक्षामे बह स्वरूपाचरणचारित्रको भो पातली या रोकती है. नहीं होने देती। इस प्रकार अमतानुबंधी कषाय दो कार्य करती है अर्थाद (१) सम्यग्दर्शन ( सम्यक श्रद्धा ) को रोकती है-नहीं होने देती (२) स्वरूपाचरणको भी रोकती है। इसका खुलासा पेश्तर कर दिया गया है ( श्लोक ३७ में चारित्रपाड़ और पट्खागमका प्रमाण देकर ) अतएव सन्देह नहीं करना चाहिये, यह निर्धार सत्य है। इसके विषय में एक उदाहरण दिया जाता है उससे स्पष्ट समझमें आ जायगा। एक माकेपर दो आदम खड़े हैं, उनमेंसे एक आदमी उल्टा मार्ग ( रास्ता) बताता है। और एक आदमी सही मार्ग पर नहीं चलने देता-बन्द किये हा है। ऐसी हालत में वर्ष पथिक ( मुसाफिर ) भटकता फिरता है, ठिकाने नहीं लगता। उसी तरह मिटाव उल्टा मार्य बतलाता है और अनंतानुबंधी कषाय सुमार्गपर नहीं चलने देती, फलतः परस्पर दो निमित्तोंके दो भिन्नभिन्न कार्य होने से भी लिया है और इस सम्भव है, ऐसा विश्लेषण दोनोंका समझना । आचार्य ने यह विशेष जानकारी दी है, इसपर लक्ष्य देना चाहिये । सारांश यह कि मिथ्यात्त्व परोन्मुख करता है और अनंसानुबंधी कषाय स्वोन्मुख नहीं होने देतो यह भेद पाया जाता है। किम्ब हुना-जब दोनों प्रकृतियों का अभाव ( उपनामादिरूप ) होता है तभी 'सम्यग्दर्शन' गुण प्रकट होता है अर्थात् विपरीत श्रद्धा नष्ट हो जाती है ब सम्यश्रद्धा प्रकट होती है, व स्वरूपाचरण चारित्र भी व्यक्त होता है । अस्तु । दूसरा अर्थ ( १ ) मिथ्यात्व, ४ अमनानुबंधी कुल ५ कर्म प्रकृतियाँ अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यग्दर्शनको घातती हैं, नहीं होने देतों और सादि मिथ्याष्टिके मिथ्यात्व ( दर्शन मोह )को ३ अनंतानुबंधोकी ४ कूल ७ प्रकृतियाँ सम्यग्दर्शनको रोकती हैं, यह सामान्य अर्थ है। पाठक यथाचि तत्वको समझे दोनों अर्थों में संगति बिठा लें । किम्बहुना 11 १२४ 11 विशेषार्थ ( खुलासा ) असलमें मिथ्याष्टिकी गलती क्या हो जाती है ? कि वह वस्तुके नियत स्वभावको भूल जाता है । अर्थात् मिथ्यात्वके समय वह अपने स्वभाव से और परके स्वभावसे भी विचलित हो जाता है। उसको यह रूपाल या स्मरण नहीं रहता कि प्रत्येक बस्तु सदैव अपने स्वभाव ( गुण या पर्याय ) में .. ही स्थिर रहती है, पर स्वभावरूप नहीं होती, यह शाश्वतिक अखंड नियम है। तभी वह अपने
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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