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________________ सम्पचारित्र जिम कामों के करनेमें हा आत्मप्राण घासे जाधै। यह है हिंसाका असल में भूल न उसमें हो पाये ।। भूत वचन आदिक ये सब ही उसमें शामिल हो जाते। शिष्योको समझाने खातिर पृथक रूपसे बतलाते ॥१३॥ अन्धय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि यथार्थ में विचार किया जाय तो ( अशुद्ध निश्चयनयसे ) [ पतसर्व भात्मपरिणाम हिंसनहेसुस्वास् हिंसा पुष ] हिंसा आदिक सभी विकारी भाव, आत्माके स्वभाव भावोंका घात करते हैं, अर्थात् उनके रहते ( अस्तित्त्वमें ) शुद्धोपयोग नहीं हो पाता, अत: उन सबको हिंसा या धात समझना चाहिये, जो कि मैमित्तिक है। अर्थात् उस शुद्धोपयोगके अभाव ( घात ) रूप हिंसा ( पाप ) का निमित्त अथवा अशुद्धोपादान, हिंसादिरूप विकारो भाव ही हैं (स्वाश्रित हैं ) यहाँपर कर्ता-कर्मकारकको अपेक्षासे विक्रारीभाव ( हिंसादिरूप ) कर्ता हैं, और शुद्धोपयोग का न होना ( घात होना ) कर्म है, यह खलासा है। अथवा स्वमें स्व निमित्तताका उपचाररूप' प्रदर्शन है अस्तु । इसके सिवाय [ अनृतवचनादि केवलं शिष्यबोधाय उदाहतं ] झूठ बचन आदि चारोंको सिर्फ शिष्योंको समझाने के लिये पृथकरूपसे ( व्यवहारसे ) कहा गया है अर्थात् वे सभी एक हिंसा पापमें ही शामिल हैं। फलत: मुख्य पाप एक 'हिंसा' ही है यह तात्पर्य है, निश्चयसे वे जुदे पाप नहीं हैं अर्थात् एकमें ही विवक्षासे 'हिंस्यहिंसकपना' सिद्ध हो जाता है ।।४२६॥ भावार्थ-अभेदविवक्षामें विकारी भावोंको और हिंसाको एकरूप ही बतलाया गया है, असएव उक्त प्रकार ( अभिनप्रदेशी) का व्यवहार ही निश्चयका कारण माननेसे परस्पर कारणकार्यपना सिद्ध हो जाता है ! जैसेकि आत्माके विकारीभाव ( हिंसादि परिणाम ) कारणरूप हैं और शुद्धोपयोगका अभाव होना कार्यरूप है ऐसा समझना चाहिये । इस तात्त्विक ( निश्चयरूप) निर्णयका उद्देश्य व्यवहारनयका खंडन करना है कि 'परपरिणाम ( शरीर ) हिसन, को हिंसा कहना, केवल उपचार है-निश्चय नहीं है यह तात्पर्य है, भूलना नहीं । नोट-इस श्लोकमें निश्चय और व्यवहार दो तरहकी हिसाओंका वर्णन किया गया हैं, इस सथ्यको समझना चाहिये । सामान्धार्थ श्लोकका करना अनभिज्ञता है। अशुद्धावस्था होना ही हिंसा है, जहाँ रागादि अशुद्धभाव आत्मामें हुए कि वहीं हिंसा खुदकी हो गई। सामान्यत: लोकव्यवहार में हिंसाका अर्थ शरीर व आयुका पात हो जानेको ( मर जानेको) कहते हैं किन्तु वह सब व्यवहार या लोकाचारकी चर्चा है। असल बात यह है कि जीवद्रव्य तो नित्य है अतः वह कभी मरता नहीं है सिर्फ उसके शुद्धभाव या परिणाम संयोगी पर्याय में विकारोंके होनेसे नष्ट होते रहते हैं, बस, वास्तव में वही हिंसा है, उसको ही यथार्थ में बचाना है, तभी वह अहिसक हो सकता है व हिंसासे बच सकता है। इसका अर्थ यह यही है कि अन्य जीवोंको मारमेकी छुट्टी मिल गई है या उनकी दया ( रक्षा ) आदि नहीं करना चाहिये इत्यादि भ्रम छोड़ देना जरूरी है । तत्वका निर्णय करना व समझना पृथक् वस्तु है और भावोंको करना व बनाना पृथक् वस्तु है । विवेकीजन
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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