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________________ परिपरिमाणात २९१ reer स्वरूप निवृतिरूप है अर्थात् परसे सभी वस्तुए ( आत्मादि ) तादात्म्यरूपसे पृथक् रहती हैं, यह नियम है । अतएव परिग्रहसे बारमा क्यों लिप्स करना विवेक अर्थात् सम्यग्दर्शनका तकाजा है, स्मरण दिलानारूप कार्य है ॥ नहीं करवाये। यह १२८ ॥ भावार्थ - इस इलोक द्वारा आचार्यने पदके अनुसार परिग्रहका त्याग करना बताया है । यद्यपि परिग्रह सभो त्याज्य है, वह एक साथ नहीं त्यागा जा सकता, किन्तु पद और योग्यता (शक्ति) के अनुसार त्यागा जाता है श्रावक ( गृहस्थ ) उस आश्रम में रहते हुए सबका त्यागी नहीं बन सकता, क्योंकि उसे गृहस्थीके कार्य करना पड़ते हैं। वह धान्यादि संग्रह भी करता है और दानादि कार्य ( खर्च ) भी करता है। ऐसी स्थिति में वह सर्वथा परिग्रहका त्यागी नहीं हो सकता, कुछ त्यागी हो सकता है, यह नियम है । तथापि उसके लिये भी विधि ( कर्त्तव्य ) बतलाई गई है कि वह प्रयोजनभूत परिग्रहका परिमाण ( सोमा ) करके rent छोड़ दे तथा अप्रयोजनभूतका पूर्ण स्याग कर देवे, जिससे मोक्षमार्गका साधक देशाती बना रहे । वस्तुस्वभावका विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि परिग्रह परपदार्थ है, वह आत्माका नहीं है, अतएव उसका सम्बन्ध आत्मा के साथ क्यों रखा जाये ? नहीं रखना चाहिये, वह कलंककी बात है ( fवरुद्ध है), परस्वको भावनासे सभी सम्यग्दृष्टि परसे विभक्त होते हैं एवं प्रारंभ से ही विरक रहते हैं । किम्बहुना विचार किया जाय । पर द्रव्यका त्याग करना उचित है । अस्तु । विचारधारा ( पद्धति ) 1 विचारधारा दो तरह की होती है ( १ ) सैद्धान्तिक दृष्टि ( निश्चयमय ) से ( २ ) नैमित्तिक दृष्टि ( व्यवहारमय ) से बहिरंग परिग्रहका त्याग करना क्यों आवश्यक है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि उसके निमित्तसे असंयम ( हिंसा द्रव्यहसा ) होता है अर्थात् बाह्य चीजों ( वास्तुक्षेत्र धनधान्यादि ) के साथ में रहने से उनकी उठाघरी-रक्षा सँभाल आदि करते समय बराबर जीवघात होता है, उससे असंयम होना अनिवार्य है अतः वह असंयम ( द्रव्यहिंसा) नैमित्तिक होने से वर्ज - नीय है अर्थात् बाह्य परिग्रहका त्याग करना जरूरी है । ( २ ) सैद्धान्तिक दृष्टिसे-बहिरंग परिग्रह आत्माका है नहीं, वह आत्मासे भिन्न है- प्रत्येक वस्तु या द्रव्य, दूसरी वस्तुसे भिन्न व स्वतंत्र है । फलतः आत्मा भी सबसे पृथक् एकत्वविभक्तरूप है। तब जानते हुए उसके साथ बाह्य परिग्रहका सम्बन्ध जोड़ना - संयोग स्थापित करना अज्ञानता है अथवा जिनोपदेशकी अवहेलना करके अपराधी बनना है । अतएव बाह्य परिग्रहका सर्वथा त्याग करना, सम्यक्त्वका चिह्न है- मोक्षमार्गका सेवन है । किम्बहुना | पापोंके त्याग करनेका प्रमुख उद्देश्य -संयम ( चारित्र) या अहिंसा का पालना है । और उनका त्याग न करना असंयम या हिंसारूप अधर्मका संचय करना है । अतः यथासंभव अहिंसा या संयम श्रावकको अवश्य प्राप्त करना चाहिये | अस्तु ||१२|| परस्परसंगति ( व्याप्ति ) या शंका समाधान आगे प्रश्न उठता है कि परिग्रह त्यागके साथ में रात्रि भोजनका त्याग करना क्यों बतलाया मिट्ट
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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