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________________ १. सम्यग्दर्शदनाधिकार सापेक्षता परस्पर संब धर्मोकी रहती है। इसीका माम विरोध रहित संधि है, जो कभी पृथक् या विनष्ट नहीं होती। तदनुसार ही वस्तुको जानना व कथन करना। बस. यही अनेकान्तको शैली है या पद्धति है । फलतः निश्चय और व्यवहारसे बस्तुको जाननेके लिए ही आचायंने इस नन्थको रचना की है। नयोंके भेद व स्वरूप इस इलोकमें नयके निश्चय व व्यवहार ये दो भेद बतलाये हैं और उनका समान्य लक्षण भी बतलाया है जो सर्वत्र व्याप्त (घटित) हो सकता है। भूतार्थ----निश्चय और अभूतार्थ-व्यवहार यह स्वरूप, आत्मभूत व अनात्मभूत--इन नामोंमें भी व्यवहृत किया जा सकता है अथवा अभिन्न प्रदेश और भिन्न प्रदेश इन दो नामोंमें भी कहा जा सकता है। इसी तथ्यको द्रव्यार्थिक व पर्यायाथिक नामसे भी कहा जाता है । अस्तु । आचार्योन नयोंके लक्षण, कारण और कार्यको अपेक्षासे किये हैं । यथा---प्रवचनसार गाथा १८९ में शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चमः' और 'अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारः' जो मय शुद्ध { परसे भिन्न स्वाश्रित) द्रव्यका या वस्तुका कथन करे, उसको निश्चयन समझना और जो नय, असद्ध या संयोगी द्रक्ष्यका निरूपण करे, उसको व्यवहारनय जाम्वना. ऐसा कहा है। यह तो शब्दनयको अपेक्षा कार्यका प्रदर्शन है, उससे निश्चय और व्यवहारका लक्षण गठित किया गया है और वैसा ही लोकमें कथन किया जाता है। तथा कहीं कहीं कारणको अपेक्षासे भी लक्षण बताया जाता है, जैसे कि दिव्यध्वनि निश्चय और व्यवहार रूप है अर्थात् दिव्यध्वनि पुगलकी { भाषावर्गणाकी ) पर्याय है, ऐसा कहना निश्चयकी कथनी है, इसमें रंचमात्र अभूतार्थता नहीं है। कारण कि पर्याएं सब द्रव्यमे ही हुआ करती हैं जो सत्यरूप हैं, स्वाश्रित है। और दिव्यध्वनि नैमित्तिक है अर्थात् केवल ज्ञानके निमित्तसे प्रकट या उत्पन्न होती है ( पराश्रित है)। अतएव वह व्यवहाररूप है, ऐसा कहना व्यवहारकथन है। यहां पर कारण की अपेक्षा कथन है और उपादानकारण ( भाषावर्गणाएँ पौद्गलिक ) और निमित्तकारण { केवलज्ञानादिक ) हैं। इस प्रकार दो तरहका कथन शब्दों द्वारा होता है अतएव वैसा ही शब्दात्मक लक्षण बनाया गया है। लेकिन अब नयात्मकज्ञान विषय ( ज्ञेय) होने की अपेक्षासे विचार या चिन्तवन या अनुभव किया जाता है तब पदार्थके आंशिक शुद्ध ज्ञान होने या करनेको निश्चयनय कहते हैं और पदार्थ के आंशिक अशुद्ध ज्ञान होनेको व्यवहारनय कहते हैं, यह सिद्धान्त है। परन्तु इसके सम्बन्ध में यह विशेषता है कि केवलीसर्वज्ञका ज्ञान नयात्मक ( खंडरूप) नहीं होता वह सर्वांशरूप युगपत् होता है किन्तु क्षायोपशमिकज्ञानियोंका श्रुत ज्ञान हो नयात्मक होता है और प्रामाणिक होता है। कारण कि वह सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं । अर्थात् पदार्थके सर्वांशोसे वह सम्बद्ध या अनुस्यूत रहता है असंबद्ध या अन्ननुस्थत नहीं रहता या उन सबमें प्रदेशभिन्नता नहीं रहता इत्यादि विशेषता समझना । इसीका माम 'स्यात् ( कथंचित् ) नयज्ञान हैं', किम्बहुना। १. एसो बंधसमासो जोबाणं णिच्छएण णिट्ठिो । अरहंतहिं जदीणं यवहारो अण्णाहा भणिदो ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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