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________________ সন্তানুগ है । पूर्ण अहिंसाधर्मका पालना भोह व योगके अभाव होनेपर संभव है या कम-से-कम मोहका अभाव होना अनिवार्य है ऐसा समझना चाहिये । फलतः पूर्णवोतरागो ही अहिंसाधर्मका पूर्ण पालने वाला हो सकता है। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होनेके पहिले अपूर्ण या एकदेश ( आंशिक ) अहिंसाधर्मका पालने वाला सिद्ध होता है किम्बहुना । उक नौ भंगोंके हो चार कषायोंके साथ सम्बन्ध करने पर ३६ भेद हो जाते हैं और संरंभ-समारंभ-आरंभ इन तीनके साथ संयोग ( मेल) करने पर १०८ भेद हो जाते हैं इत्यादि । प्रत्येक जैनका मुख्य कर्तव्य अहिंसाधर्मका पालना है क्योंकि जैनधर्मको अहिंसाप्रधान धर्म माना व कहा गया है । तदनुसार उस व स्थावर जीवोंकी यथाशक्ति रक्षा कर अहिंसाधर्म के पालनेका परिचय जैनमात्रको देना चाहिये तभी उसका जैनत्व सफल हो सकता है अन्यथा नहीं, यह निष्कर्ष है, अस्तु । दयारूप या करुणारूप भावको अहिंसाधर्म मानना उपचार है, कारण कि उससे पुण्यका बंध होता है । हाँ, वह शुभरागरूप है जो कषायकी मंदतासे होता है और परंपरया ( व्यवहासे ) मोक्षका कारण या वीतरामताका कारण बतलाया गया है जो निमित्तरूप हो है, अन्यजनकभाव नहीं है अथवा अविनाभावरूप नहीं है ऐसा समझना चाहिये। किन्तु नैतिकताके नाते उसका करना भी अनिवार्य है। कायदा, कानूनको अपेक्षा नैतिकताका पालन करना लोकाचारमें मुख्य है. चाहे उसका सम्बन्ध कायदा, कानून ( नियम.) के साथ हो या न हो, उसका ख्याल नहीं किया जाता । उक्तं च--- 'शास्त्राद् रुढिबलीयसी' या 'यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्धं न कर्तव्यं न परिसच्यमिति' नोट ---कहीं २ धर्मका अर्थ पुण्य भी होता है, जिसको मुख्यता गृहस्थ श्रावकोंके रहती है अर्थात वे अधिक पुण्यके कार्यों में दत्तचित्त ( संलग्न ) रहते हैं। वे अशुभ या अधमसे छूटने के लिये उसोका सहारा लेते हैं और अपनी व अन्य जीवोंकी अशुभसे रक्षा करते हैं तथा शुभोपयोगी मुनि साधु भी शुभोपयोगके समय शुद्धोपयोगी या शुभोपयोगी अन्य रोगी धके भूखे प्यासे मुनियोंकी वैयावृत्ति ( यगचंपी व धर्मोपदेश देकर ) करते हैं तथा औषधि भोजनादिके लिये गृहस्थोंसे कहते व सम्बन्ध जोड़ते हैं। इस प्रकार थोड़े समयको थोड़ा पुण्यवंध करते हैं सर्वदा सर्वथा नहीं यह तात्पर्य है, अस्तु । विवेकी गृहस्थको 'पुण्यानुबंधी पुण्य' करना चाहिये किन्तु 'पापानुबंधी पुण्य' नहीं करना चाहिये यह विधि है। वीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमाहिं । क्यों चक्रीनृप सुख को, धर्म घिसारे नाहिं । यह नीति अपनाना चाहिये ! धर्म अनेक प्रकारका होता है । যখা ( १ ) अहिंसारूप धर्म होता है ( बोतरागतारूप निश्चयधर्म ) भेदरहित उत्सर्ग धर्म (२) २८
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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