SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१ पुरुषार्थसिद्धयुपाय आगे आचार्य अहिंसा धर्मको पालनेकी विधिका खुलासा करते हैं कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा । औत्सर्गिकी निवृत्तिः विचित्ररूपाऽपवादिकी त्वेषा ॥७६।। मनचलन इन तीन मेदसे -कृतकारित अनुमोदनसे । होती है नवभेद अहिंसा, पारस्परिक गुणनफलसे ॥ नवभेदोंसे सहित अहिंसा, औसर्गिक समाती है। कुछ भेदोस सहित अहिंसा, अपवादिक कहलाती है । अथवा रागादिकसे रहिव अहिंसा निश्चयरूप कहाती है। शुभरागादिकरूप अहिंसा व्यवहरनय असमाती है ॥ अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ वाकायमनोभिः कृतकारितानुभननैनवधा औमर्गिको निवृत्तिरिष्यते ] मन वचन काय इन तीन योगोंके साथ कृत कारित अनुमोदनाका सम्बन्ध स्थापित करनेपर होनेवाले भवभेदोंसे यदि हिंसाका त्याग किया जाय तो उसको औसगिकी अहिंसा कहते हैं, जो अहिंसा धर्मका पहिला भेद है । [तु विचित्ररूपा एषा अपवादिकी-मचति ] और जो यही अहिंसा विचित्ररूप होतो है अर्थात् नवभेदोंसे न होकर कमती भेदोंसे । तीन भंग व ६ भंगोंसे ) होती है, उसको अपवादिकी अहिंसा कहते हैं, जो अहिंसाधर्मका दूसरा ( खंडित या अपूर्ण) भेद है । इस प्रकार अहिंसा धर्म के दो भेद कहे गये हैं ॥७६|| भावार्थ-अहिंसाधम सबसे बड़ा धर्म है, परन्तु उसका पालन दो तरहसे किया जाता है । जो महापुरुष वीतरागी { मुमुक्षु ) शक्तिशाली हैं वे नौ भंगीसे ही हिंसाको छोड़कर अहिंसाका पालन करते हैं वह उत्सर्गरूप है। और जो महापुरुष पूर्ण वीतरागी नहीं है कमती शक्तिवाले हैं, वे पूरे नौ भंगोंसे अहिंसाका पालन न कर तीन-तीन या छह-छह भंगोंसे योग्यतानुसार पालन करते हैं अतः वह अपवादरूप है । परन्तु वह भी अहिंसारूप धर्मका पालक अवश्य है व माना जाता है, भेद सिर्फ सर्वदेश व एकदेशका है। स्थावर व अस दोनों प्रकारके जीवोंकी हिंसाका जो नव प्रकारसे त्याग करता है वह सर्वदेश अहिंसा धर्मका पालनेवाला होता है और जो सिर्फ प्रसजीवोंकी हिंसाका कुछ भंगोंसे ( तीन या छहसे ) त्याग करता है व अहिंसाको प्राप्त करता है वह एकदेश अहिंसाधर्मका पालनेवाला होता है, यह खुलासा है। ऐसा कार्य पदके अनुसार सदेव होता रहता १. हिंसाका नौ प्रकारसे त्याग करना, हिंसाका उत्सर्गरूप ( सर्वदेश ) त्याग भेव होता है या कहलाता है। २. पूरे नौ प्रकारसे त्याग न कर कुछ अंगों आ प्रकारोंसे त्याग करना, हिंसाका अपवादरूप ( एकदेश ! त्याग है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy