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________________ सावंत Farar एकेन्द्री जीवोंका विचाल ( हिंसा ) पद-पदपर होता रहता है, वे उनका त्याग ( बचाव ) कर ही नहीं पाते, असंभव है । इसलिये वे अहिंसाधर्भी कैसे बन सकते हैं ? इसके समाधान में उनके लिये अपवादरूप को पालनेका उपदेश दिया गया है कि तुम यदि अशत्रय होने के कारण स्थावर हिंसाका त्याग नहीं कर सकते तो 'सहिंसाका त्याग' यथाशक्ति अवश्य अवश्य करके एकदेश (सिर्फ हिंसा त्यागी ) धर्मात्मा तो बनो हो अर्थात् अहिंसा धर्मके एकदेश पालनेवाले एकदेश धर्मा धारी ( अणुव्रती ) बनकर अपना जीवन सफल करों और जब शक्ति और योग्यता बढ़ जाय तब अस व स्थावर दोनों प्रकारको हिंसाको त्यागकर सर्वदेश हिंसाको त्यागनेवाले पूर्ण त्यागने वाले पूर्ण हाती धर्मात्मा ( महाव्रती ) बन जाना एवं जीवनको सफल करना, परन्तु बिलकुल हिंसाका त्याग न कर सदैव हिंसक व अधर्मी बने रहना, यह कर्तव्य व आदेश नहीं है। इस प्रकार धर्मके दो भेद ( उत्सर्ग व अपवाद ) बसलाये अर्थात् पूर्णहिंसाका त्यागना ( बस-स्थावर सबका त्यागना उत्सर्ग रूप है ( महाव्रत है । और यसका ही त्याग करना अपवाद मार्ग है ( अणुव्रत है ) इत्यादि भेद समझना चाहिये। लेकिन एकदेशत्यागीका लक्ष्य सर्वदेश त्यागका हमेशा रहना चाहिये तभी यह मुमुक्षु धर्मात्मा कहा जा सकता है अन्यथा नहीं। जैनशासन में एकान्तदृष्टि नहीं रहती, अनेकांतदृष्टि रहती है किम्बहुना | संयोगीपर्याय में रहते हुए एकदेश ( अप्रयोजनभूत) हिंसाका त्याग करना 'अहिंसा' कहलाता है यह भाव है । ११.५ पर्याय व खासकर संज्ञी पंचेन्द्रियमय पाकर या हिंसा आदि कुकमोंमें पड़कर व्यर्थ खो देते हैं, अपने दुर्लभ मनुष्य जीवनको कीमत या आदर नहीं करते, हमे farta माने सेवन में ही मस्त रहते हैं वे नर पशु हैं ( मनुष्यके रूपमें पशु समान हैं ) उनका उद्धार कदापि नहीं हो सकता । मनुष्यका कर्त्तव्य इतना ऊँचा है कि जो अन्यपर्यायों में हो नहीं सकता, अतः उसको पूरा करना चाहिये तभी मनुष्य पर्याय पानेकी सार्थकता है । वह कर्त्तव्य अहसाधर्म या बीतरागता रूप धर्मके द्वारा कर्मोंका क्षयकरके मोक्षको प्राप्त करना है। सो वह सिवाय मनुष्यपर्यायके अन्यपर्यायोंमें होना असंभव है | खाना-पीना, विषय सेवन करना आदि तो सभी पर्यायोंमें होता है, परन्तु कर्मक्षयका होना सिर्फ मनुष्यपर्याय में ही होता है । ऐसा समझकर अहिंसाधर्मको पालने के लिये मिध्यात्व, विषयकषायों का त्यागना, मद्यादि हिंसामय चीजोंका त्यागना अनिवार्य है इत्यादि । उत्तमसुखकी प्राप्ति इसी से हो सकती है व होती है, जिसकी चाह इस जीवको हमेशा रहती है अस्तु । पूर्ण अहिंसाव्रत ( धर्म ) के पालनेसे ही कृतकृत्य सिद्धदशा प्राप्त होती है अतः उसको यथासंभव क्रमसे पूरा करना हो चाहिये | नोट- संयोगी पर्याय में रहते हुए जो श्रावक पांच पापका अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहका एकदेश (अप्रयोजन भूतका ) त्याग करते हैं, वे अणुव्रती कहलाते हैं, यह व्याप्ति (नियम) है । यही अणुव्रत व महाव्रतका लक्षण है एकदेशत्याग व सर्वदेशत्याग इत्यादि अथवा एकदेश विरागता व सर्वदेश विरागता हो व्रत व धर्म है ऐसा समझना चाहिये ॥७५॥ १. अपवादका अर्थ विपक्ष या त्रुटिरूप होता है । अर्थात् कम त्यागरूप या शुभरागरूप चका होना । और भी पर्यायवाची शब्द हैं जिनका खुलासा आगे देखना । उत्सर्ग या महाव्रत, अपवाद या अणुव्रत ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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