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पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्रावकधर्म व भुनिधर्म ( क्रियारूप व्यवहारधर्म ) भेदसहित अपनादधर्म (३) उत्तम क्षमादिरूप छाधा धर्म/शभरागरूप...-धर्मानरागरूप व्यवहारमा सियर या उत्सव अपवादधर्म ( ५ ) मोहक्षोभादि ( रागद्वेषादि ) रहित धर्म ( ६ ) शुद्धात्माके संवेदनरूप धर्म (७) स्वानुभवरूप धर्म ( ८ } चारित्रका नाम धर्म है। ( ९.) वस्तुस्वभावका नाम धर्म है। (१०) गुणका नाम धर्म है और ( ११) सम्यग्दर्शनादित्रय धर्म है।
इसी तरहचारित्रके भी अनेक भेद होते हैं ( . व्यसंग्रहको गाथा ३५ में देखो।
घदसमदी गुतीओ धम्माणुहा परीसहजयो य ।
चारितं बहुभेया जायखा मावस्वरविसेसा ॥ ३५ ।। अर्थ-बारह व्रतोंका पालना चारित्र कहलाता है। ( भिवृत्तिरूप ) पांच समितियोंका पालना चरित्र कहलाता है ( प्रवृत्तिरूप)।
सीन गुप्तियोंका पालना चारित्र कहलाता है । दश धर्मोका ( उत्तमक्षमादिका) पालना चारित्र कहलाता है। बारह भावनाओं ( अनित्यादि ) का चिन्सवन करना चारित्र कहलाता है। २२ परीषहोंका सहन करना चारित्र कहलाता है। इस प्रकार चारित्र अनेकप्रकारका होता है। इन्हींसे भावसंवर होता है अर्थात् ये सब भाव विकारी या खोटे भावों को हटा देते. हैं अतः वह भावसंबर कहलाता है उससे पापकर्मोका आस्रव नहीं होता। यह चरणानुयोगको पद्धति है अर्थात् बाह्य (दृश्यमान) आचरणका शुद्ध होना ही, द्रव्यचारित्र कहलाता है। लोकाचारमें इसीका बड़ा महत्त्व होता है। यह चारित्र ही धर्म कहलाता है इत्यादि समझना जो व्यवहारमयको मरुपतासे है। निश्चयनयसे चारित्र या धर्मका स्वरूप दसरा होता है जो परिणामों पर निर्भर रहता है. क्रिया पर निर्भर नहीं रहता। वीतरागताका होना या अडिसा रूप भाव होना निर्विकल्प होना निश्चयचारित्र है। लेकिन हीन दशामें अर्थात सराग अवस्थामें पदके अनुसार बाह्यचारित्र भो कथंचित् उपादेय व कर्तव्य है एकान्तधारणा नहीं करना चाहिये इत्यादि ।। ७६१
आचार्य एकवेश ( अपवादरूप ) अहिंसाधर्मके पालनेवाले गृहस्थोंको भी अप्रयोजनभूत . स्थावर जीवोंकी हिंसा न करनेका उपदेश देते हैं।
स्तोकैकेन्द्रियविधाताद् गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।।७७||
पध जी गृहस्थ धन धान्य सहित है-धावर हिंसा करते हैं। उमा भी कर्तव्य यही है-बिना प्रयजन तजते हैं। जिन्हें धर्म की श्रद्धा है वे धर्मदृष्टिको रखते हैं। म्यायनीति से काम चलाते हिंसा से वे डरते हैं । ..