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________________ अहिंसागुणत २१९ अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ सम्पन्नयोग्य विषयाणां ग्रहण ] जो परिगृही घनी मानी सरागी गृहस्थ हैं, उनके | स्तोकै केन्द्रियविद्यासात् ] थोड़ी बहुत, बहु आरंभ परिगृही होनेसे स्थावर एकेन्द्री जीवोंकी हिंसा तो होती ही है ( अनिवार्य । है तथापि [ शेषस्थावरमारण विरमणमविकरणी भवति | शेष अप्रयोजनभूत ! जिनके बिना कार्यं चल सकता है ) स्थावरजीबोंकी हिंसा ( मरण ) का त्याग भी वे अवश्य करें अर्थात् यथासंभव अहिंसा व हिंसाका उपयोग करें या उन्हें बाध्य होकर करना चाहिये, जिससे वे कचित् अहिसा पालक बने रहें । गृहस्थ अवत अवस्थामें धर्म योग्यतानुसार पालें ॥ ७७ ॥ भावार्थ - यद्यपि परिगृही धनधान्यादि सम्पन्न गृहस्थ हर तरह के व्यापार कारोबार ) करता है. किसीका भी त्यागी नहीं है । इस लिये उसके स स्थावर जीवों को हिंसाका होना अवश्यंभावी है, जिससे वह पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकता तथापि यथाशक्ति सजीबों की शिनाका लाग करते हुए ( ) ( गृहस्थों को उन स्थावरजीवों की हिंसाका भो त्याग करना चाहिये जो अप्रयोजनभूत है या जिनके बिना भी कार्य चल सकता है । और ऐसा करके वे कथंचित् स्थावरजीबों की भी रक्षा करते हुए स्थावर हिंसाके त्यागी - अहिंसात्र पालक हो सकते हैं व होना चाहिये। क्योंकि असल में मनुष्य वही है जो उच्च विचार और आचार (कार्य) रखे या करें. यही मनुष्य में दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता या उच्चता है अन्यथा आहारादि सभी कार्य प्रायः पशुओं के समान पाये जाते हैं तब उनसे कोई विशेषता सिद्ध नहीं होती - समानता ही सिद्ध होती है ऐसा जानना । तमाम गृहस्थोंका यह कर्तव्य है जो उन्हें करना चाहिये सभी मनुष्यजन्म की सफलता है, कहने से करना बड़ा माना जाता है किम्बहुना ! व्यर्थ और अप्रयोजनभूत कार्योंको करके जोवनको ख़राब नहीं करना चाहिये, यही बुद्धिमानी है, हितकी शिक्षा है, अस्तु । ध्यान दिया जाय । विधान ( सिद्धान्त ) के अनुसार एकेन्द्रोजीवों ( स्थावर कार्यों के ४ चारप्राण | द्रव्यरूप } होते हैं । यथा एक स्पर्शनइन्द्री, एक कायबल, एक श्वासोच्छ्रास, एक आयुष्य | जब स्थावरकायको हिंसा होती है तब हिंसाचार अवश्य लगता है। लेकिन ४ चारप्राण घात सम्बन्धी थोड़ा पाप लगता है, जो व्यवहारनयसे पराश्रित होनेके कारण उपचार कथन है फिर भी लोकमें उसकी मान्यता होती है। नैतिकताको अपेक्षासे वह भी वर्जनीय है । भूलकर मनुष्यसमाज वैसा कार्य कभी न जिसमें का घात हो, निश्चयनयसे मनुष्यसमाजका कर्त्तव्य है कि वह अपने खोटेपरिणाम किसी भी जोवको मारडालनेके न करे, जिससे मारनेवाले ( कर्ता के भावप्राणोंकी हिंसा न हो। इस प्रकार द्रव्य और भाव दोनों प्रकारकी हिंसाओंसे यथाशक्ति बचना और अहिंसाधर्मको आंशिक व पूर्णरूपसे पालना मनुष्यसमाजका कर्त्तव्य है, उससे जीवनकी शोभा प्रतिष्ठा और परभव में सुख माताकी प्राप्ति होना अनिवार्य है अस्तु । सारांश यह है कि अती गृहस्थ श्रावक भी एकदेश व्रती ( अणुव्रती ) बन सकता है याद वह प्रयोजनभूत कार्यों में स्थावरों ( एकेन्द्रियों ) को रक्षा न कर सकने पर भी अप्रयोजनभूत कार्यों में स्थावरोंको रक्षा करे या रक्षाका प्रयत्न करें अर्थात् प्रयोजनभूत कार्योंके अतिरिक्त अत्र
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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