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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपायें अन्वय अर्थ-[जिनाः सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक कारणं वदन्ति । सर्वजदेव कहते हैं कि सम्यगझान कार्य रूप है और सम्यग्दर्शन कारणरूप है [ सस्मात् ] इसीलिये [ सम्यवानन्तरं ज्ञानाराधनमिष्टम् ] सम्यग्दर्शनके पश्चात् सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करना लिखा है क्योंकि सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता यह नियम हैं। ऐसा पौर्वापर्य सम्बन्ध स्वभावतः है, कृत्रिम नहीं है अर्थात् विशेष्यविशेषणको अपेक्षा यहाँ पर कथन किया गया है ।।३३।। भावार्थ-वस्तु स्वभाव बदल नहीं सकता क्योंकि वह पारिणामिक भाव है औपाधिक भाव अर्थात् नैमित्तिक भाव नहीं है। जीवद्रव्यमें ही दोनों पाये जाते हैं, कारण कि चेतना गुणके ये ( दर्शन व ज्ञान ) दोनों भेद हैं। इनका कार्य पृथक् २ है तथा आवरण भी इनके पृथक २ हैं कार्य पदार्थ जेय का सामान्य ज्ञान कराना है और शानका कार्य पदार्थका विशेष ज्ञान करान नाहैपदार्थ सामान्यविशंषात्मक होता है। दर्शन या खानको आवरण करनेवाला दर्शनावरण कर्म माना जाता है और ज्ञानको आवरण करनेवाला ज्ञातावरण कर्म माना जाता है। अब दोनोंका क्षयोपशम होता है तब क्रमशः सामान्यज्ञान अथवा दर्शन व भद्धान (प्रतीतिविश्वास होता है तथा विशेषज्ञान प्रकट होता है। अतएव परस्पर पौर्वापर्य भाव तो है किन्तु उत्पाद्य उत्पादक भाव नहीं है। ऐसी स्थिति में कार्यकारण भाव मानना गलत है। सत्य बात इतनी ही है कि दर्शन मोहकमके क्षयोपशमादिसे विपरीतता हटकर यथार्थता या सम्यक्पना प्रकट होता है जिससे पेश्तर दर्शन या श्रद्धान-सम्यक होता है, पश्चात् उसके साथ ही ज्ञान भी सम्यक हो जाता है अर्थात् दोनोंके मिथ्या विशेषण हटकर सम्यक् विशेषण लग जाते हैं। उसमें पहिले कारणता 'दर्शन को है क्योंकि पहिले उसी में 'सम्यक विशेषण लगता है अर्थात् पहिले दर्शन या श्रद्धान ( इत्थंभूत प्रतीति ) हो सुधरता है और उसीकी बदौलत ज्ञान भी सुधरता है यह खुलासा है । फलतः विशेषण लगनेको अपेक्षा कारणकार्यभाव समझना चाहिये और कुछ नहीं, अन्यथा कल्पना करना मिथ्या है। उत्पत्तिको अपेक्षा पहिला नम्बर ज्ञानका ही है, इसका खुलासा आगे किया जाता है सो समझ लेना। ज्ञान और श्रद्धान घे दो पृथक् २ गुण है, परन्तु साथ २ एक आत्मामें रहते हैं सामान्यज्ञान और सामान्यश्रद्धान समी अवस्थावालों के हर समय रहता है किन्तु विशेष ज्ञान और विशेषनवान हर समय नहीं रहता यह नियम है। अतः विना ज्ञान ( सामान्य ) के श्वद्धान मानना तथा विना श्रद्वान ( सामान्य ! के ज्ञान मानना भ्रम च अज्ञान है। विना ज्ञानकै भी श्रद्धान होता है, यह कहना विशेषज्ञान या प्रत्यक्षज्ञानसे सम्बन्ध रखता है अर्थात् प्रत्यक्षज्ञान न होने पर भी ( परमाणु वगैरह सूक्ष्म पदार्थोंका ) उनका श्रद्धान जिनवाणी के द्वारा हो जाता है। परन्तु यह विशेष ज्ञानकी चर्चा है--सामान्य ज्ञानकी नहीं है किम्बहुना विवक्षाको हमेशा समझना चाहिए अस्तु । , नोट-कोई गुण किसी गुणको उत्पन्न नहीं करता, सभी गुण अपनी ३ योग्यता या भवि तव्यतासे प्रकट होते हैं । आपसमें निमित्तता करते हैं परन्तु एकता या उत्पादकता नहीं करते न बलात्कारता करते हैं। ऐसी स्थितिमें 'सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें विशेषण साथ लगना रूप कारणकार्यपना बतलाया गया है जो सत्य है। इसके अतिरिक्त भायों में परिवर्तन भी तो साथ र होता है,
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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