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आत्म-निवेदन
अपने मनोगतभावोंको स्वयं प्रकाशित करने में यद्यपि मुझे अत्यन्त संकोच हो रहा है; तथापि माधुनिक पद्धति के अनुसार अनिच्छासे उसे कुछ लिख रहा हूँ । चूंकि मैं ७६ अर्पका एक साधारण व्यक्ति ई, शिक्षाके क्षेत्रमें न्याय, व्याकरण, धर्म, साहित्य, कोशका अध्ययन अचस्तरपर करके अनेक पावधियां प्राप्त की हैं तथापि पूर्ण अनुभन्न प्राप्ति होनेके बिना असंतोष है। जीवन में संतोपको अति आवश्यकता है, उसकी प्राति हो जाने पर ही मनुष्य सुखो एवं शान्त होता है । यथार्थमें विचार या निर्धार किया जाय तो यह सुख शान्ति बाह्यसामग्रीमें नहीं है-वह आत्मामें ही है, लेकिन भूलसे प्राथी बाह्य सामग्री ( परिग्रह-यम-धाम्यादि, स्त्रीपुत्रादि, हेलमेलादि, पठन-पाठनादि, पदप्राप्ति आदि ) में समझता है और इसीलिये वह येन केन प्रकारेण उसे संचित करता है । फलस्वरूप सामग्रीके प्राप्त हो जानेपर अपने को सुखी व कृतकुल्य मान लेता है, जो कोरा
इसके विपरीत कार्य करने पर ही सुख प्राप्त करनेवालोंके असंख्यात उदाहरण पड़े हुए हैं, उनकी ओर हमको ध्यान देना चाहिये, वही सुख शान्तिका उपाय या सुमार्ग है। इच्छाएं कभी पूर्ण नहीं होती और कदाचित् थोड़ी-बहुत पूर्ण हो जाने पर भी और नवीन इच्छाएं बढ़ती जाती है, तब सुखको संभावना कैसे हो . सकती है? नहीं। यथासंभव इस लेखक भी लक्ष्यकी सिद्धिके अनेक उपाय क्रिये, द्रव्य कमाया, पुस्तकें लिखीं जैसा कि चलन-व्यवहार ( पद्धति ) है, सुखशान्ति नहीं मिली 1 अन्तमें उसीके लिये पूज्य श्री १०८ अमृतचन्द्राचार्यको अनुभवपूर्ण या गुरुवर्य पूज्यतम श्री कुन्दकुन्दाचार्य के साहित्य ( समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, अष्टपाहुड़ आदि महान् ग्रन्थों ) के गहन अध्ययनसे प्राप्त हुए सार ( अनुपम तत्त्व ) की कृतिरूप पुरुषार्थसिद्धयुषाय जैसे अन्यकी हिन्दीटीका (भाषप्रकाशनी ) लिखना प्रारंभ किया और अब पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। भाषाटीका लिखनेसे हमें क्या मिला है ? किस उद्देश्मकी पूर्ति हुई है ? यह तो हम नहीं बता सकते, अतः वह निरपेक्ष लिखी गई है । लेकिन यह कह देना अनिवार्य है कि इसके लिखने में हमारे पास न कोई संस्कृतटीका थी, न कोई ( बम्बई संस्करण पं. नाथूरामजी प्रेमी लिखितके अलावा ) हिन्दीटीका थी, अतएव कटिनाई पर्याप्त उठानी पड़ी है और संभव है कि कहीं स्खलन भी हो गया हो, उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ और निष्पक्षतासे त्रुटियां बतानेका 'मी इच्छुक है । साथ ही इसके मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि मेरे आद्यगुरु स्व० पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक ५० गणेशप्रसादजी वर्णी रहे हैं । पश्चात् अन्य दो विद्वान्, जिनका मेरे ऊपर महान् उपकार है और में उसको आजन्म भूल नहीं सकता । ग्रन्थके भात्रको में कहां तक हृदयंगम कर सका हूँ इसका प्रमाणपत्र तो सहृदय विवेकी पाठक ही चेंगे, जो इसका रसास्वाद लेंगे। जितना बन सका है उतना स्पष्टीकरण अन्योंकी स्त्रीज द्वारा किया गया है एवं संगति बैठा ली गई है, कोई कोर-कसर व आलस्य नहीं किया गया है, बड़ी सावधानी रखी गई है, कृपया विवज्जन पाठक बारीकीसे देखेंगे। हिन्दीभाषामें पूर्ण आधुनीकरण न होनेसे अटि मालूम हो सकती है, किन्तु भावकी त्रुटि न होने से उसको उकवस्थान ही देना है, गिराना नहीं है, ऐसी मेरी प्रार्थना है। थायोपमिक शान और सत्संगति एवं पठनपाठनका अभाव इस्थादि