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________________ सकाचारित्रप्रकरण दुःख होता है। परन्तु निर्मोही साधु वैसा होनेपर दुःख नहीं मानता अपना कर्तव्य समझकर समताभावसे सह लेता है, बस यही चर्यापरीषहजय है। (२०) बध ( साड़न ) परीषह दुष्ट कर अधर्मी मनुष्यों द्वारा सताये जानेपर या लाड़नादि किये जानेपर रागी द्वेषी जीवोंको स्वभावतः क्रोधादि उत्पन्न होता है परन्तु वीतरागी साधु उसे सह लेता है क्रोध आदि विकार नहीं करता न दुःख हो मानता है यह बड़ी विजय है, कषायोपर काबू पाता है। (२१) निषद्याप रोषह--एकान्त निर्जन स्थानों में जमलों में अंधकार सहित कुन्द गुफाओं में, हिंसक जीवों के स्थानों में, व्यन्तरादिके निवास स्थानों में, श्मशान आदि में रहकर या ध्यान लगाकर भी दुःख या भय न करना समताभाबसे सह लेना, निषद्यापरोषह कहलाता है, धन्य है इतनी निर्मोहताको, तभी कर्मोंकी निर्जरा होती है । संसार शरीरभो!से विरक्तिको यही निशानी है। (२२) स्त्रीपरीषह-स्त्रियोंके हावभावभ्र कटाक्षादि देखकर रागो द्वेषी जीव विधारमय हो जाते हैं। इस वेदकमका जोतना बड़ा कठिन है किन्तु वीतरागी महात्मा बिलकुल विचलित नहीं होते न दुःख या पीडाका अनुभव करते हैं, यह विशेषता है, यह बड़ी अग्निपरीक्षा है। इस प्रकार श्लोक नं० १९८से लगाकर २०८तक सभी कर्तव्योंको निरसिंचार ( श्रुटिरहित ) पालना व्यवहार चारित्र कहलाता है ( ६९भेद होते हैं ) सो ऐसा निर्दोष व्रतधारी एकदेश मोक्षमार्गी माना जाता है, जिसका खुलासा आगेके श्लोक नं० २०९से लगाकर किया जारहा है ( किया गया है ) उसको बाजवी समझना चाहिये । २०८ ॥ ka
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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