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________________ কাদিমুণান্ত ही वेगारीकी तरह वह रखता है। जिसका नतीजा ( फल ) उसके असंख्यात गुणित निर्जरा प्रति समय होती है। नोट-बाह्य द्रव्यलिंगके द्वारा यदि भावलिंगीको परीक्षा न हो सके तो उस हालत में उसको आहारदान आदि विधिपूर्वक देना चाहिये, उसको मनाही नहीं है तथा वह दाता मिथ्याष्टि नहीं हो जाता किन्तु परोक्षा होने के पश्चात् यदि वह द्रलिंगी मिथ्यादृष्टि सिद्ध हो जाय तो वह पात्रदानकी श्रेणी में शामिल नहीं हो सकता। करुणादानकी दृष्टिसे उसको साधारण विधिसे ( नवधा भक्तिसे नहीं) आहार दिया जा सकता है व देनेसे दाता मिथ्यादृष्टि नहीं हो सकता ! सम्मान मिथ्याटर्शन में टोन भतार अबग्निस हैं, बाह्य क्रियापर अवलम्बित नहीं है ऐसा समझना चाहिये। करुणाभावसे हर किसी को दान दिया जा सकता है। परन्तु स्थापना निक्षेपसे सभी आदरणीय हैं, पात्रोंकी श्रेणीमें शामिल हैं, यह, सामारधर्मामृतका "भक्त्या पूर्वभनीनषेत्' वाम श्लोक नं०६४ अध्याय २ माननीय नहीं हो सकता-~~~यतः बह शिथिलाचार पोषक है, भावोंकी प्रधानतापर आघात करता है। इसी तरह द्रव्यचारित्र व भावचारित्रमें भी भेद है लेकिन दोनों भेद सम्यग्दर्शनधारी में ही बन सकते हैं। खुलासा इस प्रकार है-(१) सम्यग्दर्शन साथ में रहते हुए जो व्रतादिकरूप आचरण उस पदसे अधिककषायको मन्दताके कारण करता है परन्तु कषायका अभाव नहीं हुआ है उसका वह चारित्र, द्रव्यचारित्र कहलाता है और (२) जो चरित्र कषायके नष्ट हो जानेपर वैसा होता है वह भावचारित्र कहलाता है । इसीका माम ( १ ) द्रव्य संयम ब (२) भाव संयम है इत्यादि । इसके विपरीत जो चारित्र था संयम मिथ्यादर्शन सहित होता है वह मोक्षमार्गको गिनती में नहीं आता। उसके बाबत लिखा है कि असंजा वदे वस्यविहीणं च तो ग बंदिज्जे । दोषिण वि होति समाजा एगो वि संघदो होदि ॥२५॥ दर्शनपाहु अर्थ----भावलिंग ( सम्यग्दर्शन ) के बिना असंयमी ( स्वेच्छाचारी) और अवस्त्रधारी अर्थात् नग्नवेषी, दोनों ही समान है...संयमी नहीं, सवस्त्र हैं अतएव चन्दनीय भी नहीं हैं। बन्दमोम संयमी हो होते हैं अर्थात् जबसका सम्यग्दर्शनरूप भावलिंग न हो तबतक नग्नपनामात्रको अर्थात् द्रव्यलिंगको संयमपना प्राप्त नहीं हो सकता वह असंयमी ही कहलाता है। फलतः भावलिंग रहित द्रव्यालमधारीको संयमो कहना अनुचित है भूल है। इसी तरह अकेला द्रव्यसंयम ( सम्यग्दर्शन बिना ) भी वन्दनीय या आदरणीय नहीं होता, वास्तविक निर्णय तो यही है । किन्तु उपचारसे अथवा द्रव्यनिक्षेपसे जो सम्यग्दष्टि होकर आगे-आगेके गुणस्थानोंका संयम पाहिले अभ्यास. रूपसे पालता है, वह भी द्रव्यसंयमी कहलाता है लेकिन वह द्रव्यसंयमी सम्यग्दर्शन सहित होनेसे कथंचित् वन्दनीय है परन्तु मिथ्यादर्शन सहित संयमी कदापि बन्दनीय नहीं हैं क्योंकि वह मोक्षमार्गी नहीं है यह सारांश है। श्री कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्यों के निर्णयको न मानकर मनचाहा निर्णय करना, भावुकतामें आकर यद्वातद्वा कहना करना और उसको ठीक मानना मिथ्यात्व है, जिज्ञासाके विरुद्ध है उससे बाज आना चाहिये, सम्यग्दृष्टिको वैसा कदापि नहीं करना चाहिये, अन्यथा वह स्वेच्छाचारी महापातकी समझा जावेगा इसका ध्यान रहे-उत्सूत्री मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं, देवगुरु
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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