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________________ ८३ पुरुषार्थसिद्धघुमान वंचित किया जाता है। अतः यह पराश्रित अपराध भी उसके ऊपर आता है अर्थात् उस आचार्यको लगता है ऐसा दुहरा अपराध ( स्वाश्रित व पराश्रित ) का भागी वह अज्ञानी गुरु होता है यह खुलासा है । गलती या भूलका फल सभीको मिलता है चाहे वह छोटा हो या बड़ा हो। लेकिन समझदारसे यदि छोटी भी गलती होती है तो वह बड़ी समझी जाती है और मूर्खसे यदि बड़ो भी गलती हो तो वह छोटो समझी जातो है ऐसा लोकका न्याय है जो गलत है। शास्त्रीय न्याय इसके विरुद्ध होता है, जो अभिप्राय पर निर्भर रहता है अन्य क्रिया आदि पर निर्भर नहीं रहता ऐसा समझकर परिणाम ( भाव) हमेशा शुद्ध रखना चाहिए। यहाँ तक श्रमण संस्कृतिको मुख्यता बरलाई गई। आगे यथावसर और अधिक बताया जायगा यहाँ । तो प्रसंगवश प्रकाश डाला गया है किम्बहुना |१९|| श्रावकको धर्मको आवश्यक्ता ( रत्नत्रयरूप ) आचार्य कहते हैं कि यद्यपि मुनिधर्म मुख्य है और थावकधर्म गौण है तथापि मोक्षका मार्ग दोनों हैं । अतएव वायकको श्रावकधर्मके पालनेका उपदेश दिया जाता है। उसको संतोषपूर्वक धारण करना चाहिए यह सामान्य कथन है---- एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ॥२०॥ पध मोक्षमार्ग है निविधरूप, म्बबहाने से पहिचानी । घह ही एक रूप होता है, निश्चयनयसे तुम जानी ।। पूर्ण अपूर्ण भेद दो होते, यथाशकि धारे बुधजन । एकदेश म सकलदेश, ""चारिन-धर्म कहते गुरुजन ॥२०॥ अथवा हो गुरु इतमा धिवेकी जो, पात्र अपात्र समझ सके । अरु मोक्षमार्ग यथार्थ क्या है, ज्ञापना भी कर सके । १. श्रावक (गृहस्थ) २. योग्यतानुसार एकदेश ( अणुव्रत ) अर्थात् अल्प वीतरागतारूप धर्म (चारित्र ) सकल वेश ( महाव्रत) ३. नय। ४. पंडित-दुद्धिमान् । ५. चारित्र बनाम धर्म । ६. आचार्य आदि। ७. बता सके...दूसरोंको उपदेवा द्वारा समझा सके।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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