SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ NEE aaintionelaiminatmmeani nibananam ५. सम्यग्दर्शमाधिकार अविनाभावी हैं । अतएव किसी एकका नाम लेने से दोनोंका ग्रहण हो जाता है, लोकमें ऐमा न्याय है। जैसे कि माताका नाम लेनेसे पिताका नाम आ जाता है या रूपके कहनेसे सहचर रसका भी कथन या ग्रहण हो जाता है। तदसूसार यहाँ पर भी विज्ञानता---परंज्योति के साथ बीतसमताका भी उपादान हो जाता है औरहत या केवलज्ञानी होने के लिये वीतरागता व विज्ञानता दोनोंकी आवश्यकता होती है व मानी गई है। अस्तु, ये दोनों आत्माका स्वभाव है तथा ज्ञान के साथ वैराग्य होता है अतः जोड़ोदार भी हैं। ज्ञानका अर्थ यहाँ भेदविज्ञान है, किन्तु साधारण शान नहीं है जो सभी जीवों में रहा करता है, कारणकि वह जीवद्रव्यका साधारण लमाण है, जो दूसरे द्रव्योंमें नहीं पाया जाता । हमेशा गुण हो। पूज्य होते हैं, वेष वगैरह पूज्य नहीं होते क्योंकि वे जड़ पुगलकी पर्यायरूप हैं इत्यादि । गुण और गुणीका परस्पर भेद न होनेसे गुणोंके नमस्कार द्वारा गुगीका नमस्कार अनायारा) आनुषंगिक ) सिद्ध हो जाता है ) किम्बहुना । आचार्य या साध-मधिमा करा ' को माध्यस्थ्यभावका बनाम समताभाव या निर्विकला कलाका भलीभांति निर्वाह करना है अर्थात् उसकों रागद्वेषसे रहित होकर निन्दा-स्तुति, कांच-कंचन, शत्र-मित्र, आदि सब में कोई विकारीभाव या पक्षपात नहीं करना चाहिये 'सस्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद इत्यादि भावना भी वर्जनीय बतलाई है, कारण कि उससे बन्ध होता है। इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने रत्नकरंडयावकाचारमें "विषयाशाबशातीतो निरारंभापरिग्रहः ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी म प्रशस्यले लिखा है। सब आरंभपरिग्रह, विषयवासनासे रहित सिर्फ ज्ञान, ध्यान व तपमें लीन रहने वाला साधु या श्रमण होता है व होना चाहिये, शेष सभी कार्य उसके लिये वर्जनीय हैं...पदवीके त्रिस्त हैं इत्यादि । शास्त्ररचना आदि कतंत्र्य है। आचार्य शास्त्र-रचनाकर सराहनीय कार्य किया है, पदके अनुकूल है। पुनः परमज्योतिः ( केवलज्ञान ) की और विशेष महिमा ( तारीफ) है-उसका ज्ञेयोंके साथ नित्य सम्बन्ध सिर्फ निमित्तनैमिलक है याने शेय-जायक सम्बन्ध है, उत्पा-उत्पादक सम्बन्ध नहीं है, यह बताया जाता है । ज्योति: प्रकाशको कहते हैं सो वह ज्योतिः या प्रकाश जोवद्रव्य ( वेतन ) में होता है और पुद्गलद्रव्य ( रत्न वगैरह जड़ ) में भी होता है। परन्तु ज्योतिका महत्व सिर्फ प्रकाश करनेसे नहीं होता किन्तु, खुद अपनेको जाननेसे होता है। ऐसी स्थिति में पुद्गलद्रव्य ( अजीव) की ज्योति ज्ञान या चेतनता रहित होनेसे वैसी आदरणीय नहीं होती जैसी कि आत्मा ( जीव ) को ज्योति आदरणीय होती है 1 अस्तु, इराके सिवाय जड़की ज्योति जड़को ही प्रकाशित करती है चेतनको प्रकाशित नहीं करती । जैसे कि एक्सरा शरीरके मामूली स्थूल विकारको बताता है . १. तीन भुवनमें मार वीतराग-विज्ञानता । त्रिय शिवकार ममह श्रियोग सम्हारिके ।। -छहकाला १-१ मंगलमय मंगलकरन धौलसम-विज्ञान 1 नगों नाहि जाने भत्रै अरहता दिगहान् ।। ---मोक्षमार्ग प्रकार २. तत्त्वार्थमूत्रमें उपयोगो लक्षणम्' कहा गया है । अ०२ मूत्र ।।८।। .. "गुणाः पूज्याः पुसां न - विकृतवषो न च वयः ---स्वयं मुस्तोत्र 80p NAurane
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy