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________________ पुरुषार्थसिद्ध युपाय निम्न प्रकारसे करते हैं । यथा [यत्र] जिस परंज्योति या केवलज्ञानमें (विज्ञानमें) [स] युगपत् यानि एक साथ....एक काल ही | समस्तैरनंतपर्यायः सकला पदार्थमालिका | अपनी सम्पूर्ण अनन्त पर्यायों सहित रागरस पदार्थ गानाप विगत वर्षगह या एनककी तरह, माने जैसे दर्पणके सामने आनेपर चेहरा मोहरा या बस्तु उसमें स्पट प्रतिबिम्बित होती हैं, उसी तरह [प्रतिफलति । झलकते हैं या जाने जाते हैं [तत् पज्योतिः जति ऐसी वह परंज्योति या केवलज्ञान जयवन्त रहे याने सदैव अनन्तकाल तक मौजद रहे उसका अस्त कभी न हो । अर्थात् उस गुणवाले मोक्षमार्गप्रदर्शक गुणी (केवली सर्वज्ञ) का हम ( आचार्य अमतचन्द्र विनय करते हैंकृतज्ञता प्रकट करते हैं, यह सारांश है। फलतः वीतरागता एवं विज्ञानता दोनों ही उपास्य व आदरणीय एवं प्रापणीय हैं । इस तरह बहुअर्थोमंगलाचरण आचार्यप्रवरने किया है। मंगलाचरणके प्रयोजन' अनेक है जो विनयगुण में शामिल हैं ।।१॥ . भावार्थ.....कति शुभोपयोग या धर्मानुरागका परिचय मंगलाचरणके द्वारा हुआ करता है । संयोगो पर्याय में रहते हुए भी जीवोंको कृति या प्रतिसे उनके भावों (परिणामों) का पता बराबर लग जाता है. कोई असाध्य वस्तु नहीं है। जब परोपकार करनेकी अभिलाया या धर्म सथा धर्मात्माओं के प्रति कृतज्ञताका भाव होता है या उसका प्रबल देग प्रकट होता है तब वह किसीका रोका हुआ नहीं रुकता। यद्यपि विवेकी सम्यग्दृष्टि जॉब उसको रोग या विकार जैसा हेय ही जानता व मानता है तथा शक्तिहीनतासे संयोगीश्यायमें अभिच्छा या अरुचि उसका प्रयोग, उपयोग या सेवन करना ही पड़ता है। इसलिये वे विकारी भाव ज्ञानपूर्वक होनेसे ज्ञानभावरूप ही हैं, अज्ञानभावरूप नहीं हैं, न होते हैं तथापि अचि या अनिच्छा साध रहनेसे अधिक बन्धके कर्ता ने नहीं होते, अल्पबन्धके का ही में होते हैं, परन्तु इकदम रुकते नहीं हैं। तभी तो पूज्य, कुन्दकुन्दाचार्यप्रभूति महात्ती आत्राोंने छठवें गुणस्थान में रहते हुए शुभोपयोग और शुद्धोपयोग बनाम व्यवहार और मिश्यका सदुपयोग किया है. दोनोंका अविरोधरूपसे प्रवर्तन अपने में किया है । जो प्रत्येक ग्रन्थमें मंगलाचरण में प्रस्फुटित हुआ है। यहाँ पर भी वही समानाना है । परिणमनके अनुसार शुद्धोपयोगो मोक्षमार्गीका उपयोम बदलकर शुभोपयोग रूप हो जाता है। स्वभावके अनुसार उपयोग क्षायोपशमिकदशामें बदलता रहता है तभी तो परमात्माके अनुपम गणोंको प्राप्तिका भाव रखकर परमात्माके गणीका कीर्तन संभवत: आचार्यने किया है। परन्तु ध्यान रहे कि यह अशुभराग नहीं हैं कारणकि इसमें विषय-कषाय बढ़ानेको चाह या इच्छा नहीं है न किसी तरहकी संपलेशता है जिससे अधर्मानुगग या अशुभोपयोग मानाजा सके, यह रहस्य है । अस्तु, यहाँपर यह प्रश्न हो सकता है कि लक्ष्यको सिद्धि ( केवलज्ञानकी प्राप्ति ) बिना वीतरामताक नहीं हो सकलो, उसका होना साथमें अनिवार्य है। परन्तु आचार्य महाराजने उसका नाम भी नहीं लिया, यह कैसा ? इसका समाधान यह है कि दोनों सहभावी या १. (१) नास्तिकता ( अधार्मिकता) दोपको मिटानके लिये (२) शिष्टाचार पाल के लिये याने पूर्व परम्पराको चलाने के लिये ( ३ ) विनोंकी शान्तिके लिये ( ४ ) जाकार स्मरण करने के लिये इस प्रकार चार प्रयोजन मंगलाचरणके माने गये हैं। आचार्य में उन्हें लक्ष्य रखा है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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