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________________ jata अवतीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमतयोगाबत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥ १०२॥ 環 विना दिये घन आदि वस्तु की जो प्रमादवश ग्रहना हैं । नाम उसी का चोरी है अरु हिंसा पाए भी करना है | कारण इसका दुःख देना है, जिससे हिंसा होती है। विना स्वीकृति वस्तु बरतना चोरी है दर खोती हैं ॥ १०२ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ श्रमतयोगात यम् श्रवितीर्णस्य परिग्रम्य ग्रहणं ] जो प्रमाद या arrears face विना दी हुई या बिना मंजूर किये पर वस्तुका ग्रहण या स्तेमाल ( उपयोग या बरतन ) करना प्रत्येयं ] उसको चोरो पाप समझना चाहिये । [धस्य हेतुवन् या हिंसा एवं ] और वह चोरी प्राणघातका निमित्त होने से हिंसा पापरूप भी है, ऐसा समझना चाहिये। ऐसी स्थितिमें यदि हिंसा पापको तरह अप्रयोजनभूत कामों में चोरीका त्यागकर दिया जाये तो निःसन्देह वह एकदेश चोरीका त्यागी अणुव्रती श्रावक ( गृहस्थ ) हो सकता है । परन्तु यह अपवाद मार्ग है पूर्ण उत्सर्ग या शुद्धवीतराग मार्ग नहीं है तथापि लाभदायक है जितना पापकायें छूटा उतना ही अच्छा है ॥ १०२ ॥ भावार्थ - बहुत से कार्य ( भोगोपभोगके साधन ) लोकमें ऐसे होते हैं कि जिनके करनेका जिन्दगी में कभी अवसर हो नहीं मिलता वे काम नहीं करना पड़ते ) परन्तु उनका त्याग न होनेसे तज्जन्य पापका बंध होता ही रहता है। जैसे कि हिंसाका त्याग नहीं करनेसे वह जीव हिंसा करनेवाला माना जाता है अर्थात् उसकी गिनती हिंसक या हत्यारे जीवों में होती है एवं उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है। ऐसी स्थिति में श्रावकका कर्तव्य है कि विवेकसे कार्य करे। तदनुसार अप्रयोजनभूत कार्यों में हिंसा आदि सभी पाप छोड़ देवे, जिससे उसका जीवन संयम या व्रतसहित बोते तथा वह अहिंसा सत्य आदि व्रतधर्मका पालनेवाला बने इत्यादि । अरे ! यदि श्रावक समझदार हो तो रात्रिको सोते समय तमाम परिग्रहका त्यागकर देवे जबतक कि वह न जगे उसमें उसको बड़ा लाभ होगा यदि कदाचित् सोते में उसकी मृत्यु हो जाय तो उसका मरण व्रती अवस्था में होना कहलायगा व उसको सद्गति प्राप्त होगी। इस तरह चोरी पापके प्रसंग में 'अचौर्य' धर्म भी पल सकता है ऐसा समझना चाहिये ।। १०२ ।। १. विनाशे या बिना दिये द्रव्यको । २. चोरी पाए ३. इज्जत या विश्वास नष्ट कर देती । १५५ उतं च---निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परम् । नहयन्त दत् तदकुशचीर्यादुपारमणम् ॥ ५७ ॥ रचः श्र०
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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