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________________ सल्याणुव्रत कल्याणके अर्थ ( शुभ भावनासे) पाँच पापोंका या सात व्यसनों का त्याग कराते हैं, जिससे उन कामोंका व्यापार या तदाश्रित आजीविका करनेवालोंको दुःख व हानि पहुँचेगो, क्योंकि उपदेशके प्रभाबसे वे पापो व्यसनी जीव हिंसादिकका करना ब मद्यमांसादिकका सेवन करना छोड़ देंगे लब उन दुकानदारांकी दुकानें न बलभेसे दुःख होगा इत्यादि, अतः उनका पाप उपदेश देकर छुड़ानेवाले साधु गुरुओंको लगेगा इत्यादि कुतर्क व्यर्थ हैं। कारण कि उपदेशक किसीको प्रत्यक्ष { इरादा करके ) दुःख हानि नहीं पहुंचाना चाहते, न हो दूसरेका पाप दूसरेको लगता है यह नियम है, अपना-अपना फल लगता व भोगता है यह निष्कर्ष है, भ्रममें नहीं पड़ना चाहिये ॥१०॥ दूसरे असत्य पापके प्रसंगमें आशंका होतो है कि अणुवती श्रावक सर्वथा असत्यवचन (झूठ बोलने )का त्याग नहीं कर सकते, कारण कि गृहस्थाश्रममें व्यापार आदि आरम्भके कार्य ( साबधकार्य ) उसके पाये जाते हैं अतः उसमें कुछ न कुछ असत्य बोलना ही पड़ता है ? इस प्रश्नका समाधान रूप आचार्य सत्याणुव्रतका स्वरूप बतलाते हैं । भोगोपभोगसाधनमात्रं सावधमक्षमाः मोक्तम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमयि नित्यमेव मुश्चन्तु ॥१०॥ पद्य भोग और उपभोग कार्य के साधन जगमें ओ होते। जिनमें असत् पाप गला है उन्हें त्याग यदि नहिं सकते ।। उनको छोड़ शेष कामों में झूठ बोलना त्याग करे । एक देश भी त्याग करेसे सत्य अणुव्रत कदम धरे ॥१०॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ये सावध भौगोपभोगसाधनमात्र सोमनमाः ] जो जीव ( गृहस्थ अवती) सम्पूर्ण भोगोपभोगके साधनोंको अर्थात् व्यापार कृषि आदि कार्योंको, जिनमें 'हिंसा झूठ पापों का होना संभव व अनिवार्य है, उन सबको यदि नहीं छोड़ सकते हैं तो भी [ऽपि शेष समर्म अनृतं नित्य मेष मुञ्चन्तु ] उन असमर्थ ( अन्नती ) जीवोंको चाहिये कि उन प्रयोजनभूत ग्राम्भादिके साधनोंको छोड़, ( अतिरिक्त ) शेष । बाको ) जो कार्य या साधन हों उनमें असर- बोलनेका तो त्याग अवश्य करें और एकदेश सत्यद्रतो जीवन में अर्थात् अवतीपना ( असंयमीपद ) छोड़कर अणुव्रतो बराबर बनें, यह कर्त्तव्य है ॥१०१।। भावार्थ-वती जोबनसे ही मोक्ष होता है, अन्नतीसे साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती यह नियम है वह निष्फल है । अतएव यदि कोई गृहस्थ श्रावकपूर्ण या महाव्रत ( त्याग ) धारण १. लसत्य वचनरूप पापकार्य ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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