SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सस्याणुत्रत २४९ reenaraint after श्रद्धा नहीं होती, वह हमेशा उद्वेजनीय रहता है । इसके सिवाय बह avee (चदनामी ) का भागी भी होता हैं। अप्रिय भंडवचन ( भद्देबोल ) व बकवाद भरे वचन कहने का होता संभाव्य ही नहीं अवश्यंभावी है, ऐसा समझना चाहिये । फलस्वरूप कर्मबंध होता है यथा- परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येापराधवान् । वध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः ॥१८६॥ कलश अर्थ--आत्मा के स्वभावसे भिन्न जो विभाव ( असत्यादि) रूप पर पदार्थ हैं उनको ग्रहण करनेवाला अर्थात् अपने माननेवाला अज्ञानी जोब अवश्य ही अपराधी सिद्ध होता है, जिससे उसको की सजा मिलती है, बच नहीं सकता तथा स्वभाव भाव स्थिर या संतुष्ट रहनेवाला मुनि निरपराधी है ( परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता ), अतएव उसको कर्मयंत्र रूप सजा नहीं मिलती, यह तात्पर्य है । अशुद्धतावाला अपराधी होता है, शुद्धतावाला निरपराधी होता है, अस्तु । आगे आचार्य, सावध ( पाप या कषायदोष युक्त ) वचनका स्वरूप बताते हैं जो चतुर्थ असत्यका दूसरा मेद है । छेदन भेदनमारणकर्षणवाणिज्य नीर्यवचनादि । तत्सावंद्यं यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ||१७|| पद्म tere are aण वणिज चौर्य पापयुक्त ये वचन कहे हैं, प्राणघात हैं निमित कारणं ये सारे, हिंसा पाप कराने में । नाद सथ । करवाले जय || अतः इन्होंer वर्जन करना, असत् पाप छुड़वाने में ॥ ९७ ॥ अन्वय अर्थ - आचार्य कहते है कि [ यस छेदमभेदनमारणकर्षण वाणिज्यश्रीयंवचनादि ] जो वचन प्रयोग ( कथन बोलचाल ) छेद डालनेवाला हो, कि इसको छेद डालो, घायल कर दो, भेद डालनेवाला हो कि, इसके टुकड़े कर दो ( बूटी-बूटी निकाल दो ) तथा मार डालनेवाला हो कि, इसको जानसे मार डालो ( हत्या कर दो ), तथा कर्षण करनेवाला हो कि, इसको जोरसे बाँध दो कड़ोर दो ( घसीट डालो इत्यादि ) तथा हिंसक व्यापारमें लगानेवाला या प्रेरणा करनेवाला हो कि, आ क्यों बैठे हो, अमुक व्यापार करने लगों उसमें बड़ी मुनाफा है इत्यादि तथा चोरी करानेवाला हो कि, द्रव्य कमाना हो तो बिना पूँजीका धंधा चोरी करना है सो क्यों नहीं करते arre क्यों बैठे हो इत्यादि । [ तत्मावर्थ, यस्मात् प्राणिबधायाः प्रवर्तन्ते ] ये सब प्रेरणारूप पूर्वोक्त १. ऐसा करो वैसा करो इस प्रकारके वचन बोलना उच्चारण करना आदि । २. दोष या पाप युक्त । ३२
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy