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________________ २५० पुरुषार्थसिदधुपाय वचन प्रयोग ( कथन-उपदेश बातचीत ) पापमय या कषायमय अथवा 'सावधवचन' कहलाते हैं, कारण कि उनसे जोधों की हिंसा वगैरह होती है अर्थात् उनसे छेदनादि हिंसक कार्यों को करनेकी प्रेरणा मिलती है ( निमित्तरूप वे हैं ) अतः उनका त्याग करना चाहिये ।। २७ ।। भावार्थ----उपर्युक्त प्रकारके वचनोंका बोलना या उत्तेजना देना बड़ा पाप है, जिससे दूसरे जीवोंका नुकसान हो, दुःख पहुँचे, संक्लेशता हो, विवेकीजन कभी ऐसा कथन नहीं करते । क्योंकि व्यर्थ में पापबंध करना अनर्थदंड है। परन्तु कषायवश जीव अफर्तव्य भी करने लगते हैं, इसीसे जनका पाप या अधर्म कहा है। असत्य वचनका सीधा सादा अर्थ 'असद या अप्रशंसनीय ( बुरा) कथन भी होता है । जो वचन, पापोंको उपार्जन या पोषण करें ये सब बचन अप्रशंसनीय सावद्यरूप या निन्दनीय हो, ऐसा ना गा : स: सत्पुरुष असत्का संसर्ग छोड़ देते हैं, भरसक बुराईको अपने पास नहीं रखते, किम्बहुना । पापको कृतकारित अनुमोदनासे त्याग देना ही हितकर है।। ९७॥ आगे आचार्य असत्यके ( ३ ) तीसरे भेद 'अप्रिय वचन'का स्वला बताते हैं । अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम । यदपरमपि तापकर परस्य सत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥१८॥ जिन वचनोंसे अरुचि होस है भय अरु खेद अवश होता। खेद र मरु शोक कलह भी जिनसे निस प्रसि है बढ़ता ॥ और चे वचन जनसे होता, अम्तस्ताप सदा मनमें। सभी बचन के अय' होते उन्हें त्यागना जीवममें ॥९॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ यत् परस्य अरसिका मोतिकरं स्खेदकर वैरशोककलहकरं अपरमपि तापकरं वचन ] जो वचन दूसरेको अरुचि या अप्रीति करनेवाले हों याने जिन वचनोंसे दूसरे लोग घृणा करने लगें, प्रेम करना बन्द कर देवें तथा भय करने लगें ( शंका या सन्देह उत्पन्न हो जाय ) दुःख उत्पन्न हो आय, शत्रुता हो जाय, शोक ( पश्चात्ताप या ग्लानि-घृणा ) उत्पन्न हो जाय या विकल्पमें पड़ जाय तथा लड़ाई झगड़ा उत्पन्न हो जाय । इसके अतिरिक्त जिससे हृदय तप्तायमान या विदीर्ण हो जाय ( अन्तस्ताप हो जाय) [ तत्समप्रियं ज्ञेयम् ] उन सब वचनोंको 'अप्रिप्रवचन' कहते हैं जो सर्वथा त्याज्य हैं ।। ९८ ॥ भावार्थ-अप्रिय वचनोंका व्यवहार ( उच्चारण ) कभी जीवोंको हितकर नहीं होता। इसीसे कहा जाता है कि 'न ब्रूयात्सत्यमप्रियम्' अर्थात् यदि सत्य भी हो परन्तु अप्रिय हो तो, नहीं बोलना चाहिये, यह लोकोक्ति है, इसपर भी ध्यान देना चाहिये। तदनुसार अप्रीतिकर, भयकारक, खेद या दुःखजनक वैरभाव या दुश्मनी उपजावनेवाले, चिन्तामें डालनेवाले, लड़ाई तकरार करानेवाले, अशान्ति पैदा करनेवाले आदि दुर्वचनोंको पापका कारण बतलाकर याने अधर्म बतलाकर
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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