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________________ सध्याशुमरा आचार्यांने त्याग कराया है। यहो निमितोंका त्याग करना व कराना कहलाता है, जो विवेकी atter कर्तव्य है । इस श्लोक में मुख्यतया नोकषायोका कार्य बतलाया गया है जो पापरूप है । सामान्यतः सभी कषायें व नोकवायें तथा योग पापरूप है, जो जीवको अशुद्धतामें रखकर संसारसे नहीं छूटने देते तभी तो मोक्ष प्राप्तिके लिये 'उपयोगशुद्धि:' ( कषायोंका अभाव होना) और योग शुद्धि: खोटे कार्य करना छोड़ देना, संयोग हटाना ) का होना अनिवार्य बतलाया है, अस्तु विचार करना चाहिये ॥ ९८ ॥ आचार्य अन्त में उपसंहाररूप कथन करते हैं-सबका सारांश बताते हैं । सर्वस्मिन्नयस्मिन् प्रमत्तयोगकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति ॥ ९९ ॥ २५१ पद्य था अस्य करून जहाँ हेतु होता । वहाँ अव हिंसा होती हैं प्रभाद स्थागमा रे श्रोता । मही आमित करना इस सत्में सत्यवचन ये है वफा । सार बात यह हैं आगमकी पालनकर मुक्ति भोका ||१९|| अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ अपि यत् सर्वस्मिन्नपि अस्मिन् अमृतवचने प्रयोगक तुकयनं ] गहित आदिवचन बोलने में अथवा सामान्य ( भेदरहित ) असत्यरूप वचन बोलने में जो शब्दोच्चारण या वाक्य प्रयोग किया जाता है वह सब प्रमादयोगसे अर्थात् कषायभाव और Tarfour far जाता है अतएव उसमें मुख्य कारण एक 'प्रसाद' योग' ही है । [ म नियतं हिंसा समवति] उसके फलस्वरूप नियमसे हिंसा पाप लगता है अर्थात् आत्माके स्वभाव भावरूप भावप्राण दर्शनादि ) नष्ट होते हैं या घाते जाते हैं यह भारी हानि होती है । इसीलिये जहाँ जहाँ प्रमाद योग हो वहाँ वहाँ हिंसा होती है यह व्याप्ति बनाई गई है ।। ९९ ।। भावार्थ जहाँ जहाँ कषायपूर्वक योगोंकी प्रवृत्ति होगी वहाँ वहाँ सब पापोंका मूल हिंसा पाप अवश्य लगेगा यह अटल नियम है। तदनुसार मुख्य पाप ( अधर्म ) हिंसा ही है और मुख्य धर्म एक अहिंसा ही है । असत्य आदि सब हिसाकी ही शाखाएँ या नामान्तर हैं, जो सिर्फ अज्ञानियोंको समझानेके लिये बतलाये गये हैं । फलतः संयोगी पर्यायमें रहते हुए प्रमादी जीव ही अपराधी होता है और प्रमादरहित निष्प्रमादी जील निरपराधी होता है। अतएव अपराधी (योगावाले) को दंड या कर्मबन्धको सजा मिलती है एवं उसका पद ( दर्जा ) नीचा होता है तथा निरपराधी (योगकषाय रहित ) जीवको दंड या सजा नहीं मिलती ( कर्मबन्ध नहीं होता ) एवं उसका पद ऊंचा ( केवलज्ञान व मोक्ष ) होता है यह सारांश है । ऐसो स्थितिमें १. 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र १४ अध्याय ७ ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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