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________________ 再度 १. सम्यग्दर्शनाधिकार आत्मा, दृश्यमान जैसे अरूपी अदृश्य पदार्थ का रूपी शरीरादि साधनों द्वारा ज्ञान कराया जाता है, जोकि यद्यपि है अशुद्ध ( व्यवहार ) ज्ञान, तथापि मुख्य लक्ष्य निश्चयका ज्ञान कराना होनेसे वह वोखा देना या मायाचार व कपट करना ( गुमराह करना ) नहीं कहा जा सकता, बल्कि उस ftary rtant उसकी योग्यता के अनुसार सान्त्वना ( तसल्ली ) देना है, जिससे वह घबड़ाने न पावै । ऐसा करते २ जब उस जिज्ञासुको स्वयं ही निवमनयरूप सत्यज्ञान प्रस्फुटित ( प्रकट ) होता है तब अपने आप वह निश्चय व्यवहारकी समझ लेता है और पेश हुने बुद्ध शान जानकर उसको छोड़ देता है क्योंकि वह तो शरीरादि साधनों को हो जीव जनानेवाला भ्रम ज्ञान था ऐसा मेदज्ञान उसको प्रकट हो जाता है । वह व्यवहारज्ञान असत्यार्थ है और निश्चयशान सत्यार्थ ऐसा दृढ़ ज्ञान श्रद्धान उसको हो जाता है व उसके होनेमें पर ( कोई शरीरादि व इन्द्रियादि) सहायक नहीं होते, उसका आत्मा ही सहायक ( स्व सहाय ) होता है और मेरा आत्मा या जीव यही है, जो अपनेको अखण्ड fros रूपसे नियत जानता है । फलतः व्यवहारनयसे साध्यसाधनभाव या कार्यकारणभाव परके साथ माना जाता है और निश्चयनयसे अपने भीतर हो सब पाया जाता है 1 जब जिज्ञासु और आचार्यका एक मत हो जाता है तभी साध्य ( सम्यग्ज्ञान की सिद्धि रूप अन्तिम लक्ष्य पूरा हुआ समझा जाता है । यही आशय उक्त श्लोक द्वारा आचार्यने दरशाया है। इसकी पूर्ति न होनेतक सभी ज्ञान प्राय: अज्ञान कोटि में शामिल रहते हैं क्योंकि दे प्रमाणरूप नहीं हैं। हितकी प्राप्ति ओर अहितका परिहार कराने में समर्थ ज्ञान हो प्रमाण माना जाता है और वह सम्यग्ज्ञान ही है, किम्बहुना ॥ ६ ॥ आचार्य पूर्वोक्तको ही पुष्ट करने के लिए एक दृष्टान्त देते हैं माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य | व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ||७|| पच जिसकी निश्चयज्ञान नहीं वह व्यवहर निश्चय जानत है । सिंह ज्ञान नहिं होता जिसको खिल्लीको सिंह areत है ॥ पर यह भ्रम मिट जाता तब है, जब सध्या सिंह fee year | इसलिये कहा है, द्योतक निश्चय प्रकटाता ३७।। अन्वय अर्थ --- [ यथानवगीतसिंहस्य ] जिस तरह जिसे किसी आदमीको सच्चे शेरका ज्ञान नहीं है, परन्तु जिज्ञासा जरूर है वह [ माणवक एव सिंह भवति ] बिल्लीको ही सच्चा सिंह मान व्यवहार "360" १. हिताहिलासपरिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तदिति ॥-- परीक्षासूत्र १-२ | २. जर जिणमयं पविञ्जय ता मा बबहार विच्चये सुईए । एक्केण विना छिज्जद तित्यं अणेण उण तच्च ॥ क्षेपकगाथा | ५
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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