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________________ সুখবিসুকায় के द्वारा जाने वह जीव है। यहाँ भी इन्द्रियों ( साधनों-निमित्तों ) को पराधीनतासे जीवको सिद्धि बतायी गई है, जो सरासर व्यवहारनयका ही भेद है अर्थात् श्रोताको यह अभूतार्थ ज्ञाम होता है कि मैं इन्द्रियोंसे जानता हूँ अतएव में जीव हूँ। क्योंकि भिश्चयनयो जीवका स्वरूप स्वाधीन व स्वाश्रित है, पराश्रित या निमिताश्रित नहीं है यह दूसरा व्यवहारनयका उदाहरण है। (३ ) इसी तरह भेदाश्रित व्यवहारका उदाहरण यह है-जो ज्ञान व दर्शनसे जानता है वह जीव है। यहाँ पर अखंड व अवक्तव्य जीवद्रव्यमें ज्ञान व दर्शनका भेद करके कथन किया जाता है अतएन वह व्यवहारनयका विषय है निश्चयनयका विषय अखंडपिंड है। यद्यपि व्यवहारनय हेय है परन्तुर, दाम उत्तान जीवतत्त्यक विषयमें कुछ अज्ञान भिटाया है अतएव वह कचित् अपेक्षणीय है सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है. प्रारंभ अवस्थामें कार्यकारी है। व्यवहारनय पदार्शका अशुद्ध स्वरूप बतलाता है, जिससे वह आत्मकल्याणका साधक नहीं है बाधक है व त्याज्य है। फलतः तीनों प्रकारका व्वहारनय है तो हेय, परन्तु प्रारंभमें अज्ञानियों को समझानेके लिये थोड़ा उपादेय भी है किन्तु श्रद्धान गलत या विपरास नहीं होना चाहिये, यह निष्कर्ष है ! अशुद्ध या विभावरूप प्रवृत्तिको या क्रियारूप परिणमनको उपादेय या आत्महितकारी न मानकर निमित्त या उपाधिरूप ही मानना और बस्तु स्वभावपर हमेशा दृष्टि रखना, उसको नहीं हटाना अर्थात् पर { विभाव ) की ओर दृष्टिको नहीं जाने देना ही मूलमें भूल नहीं करना है और निज स्वभाव ( ज्ञानदर्शनादि } से दृष्टिको विचलित करना ही. मूल में भूल'च अपराध है, यह ध्यान रखना चाहिए। फलतः असंयम या संयम (द्रव्यभावरूप) दोनों बन्धके कारण या निमित्त हैं विकार है अतएव ज्ञानी वीतरागो उनको भी त्याग देता है वह ज्ञातादृष्टा मात्र स्वस्थ होता है, एकाकी स्वरूप रमता है। इसके विपरीत जो केवल व्यवहारनयावलम्बी अशुद्धज्ञानी और अशुद्धाचरणी हैं वे जिनवाणीके उपदेशके पात्र नहीं है क्योंकि वे उसको समझ नहीं सकते न उनको रुचि होती है, यह खराबी उनमें पाई जाती है तब उन्हें उपदेश देना ही व्यर्थ है 1 अथवा कभी-कभी उसका उल्टा फल भी होता है । फलतः संयोगी पर्यायमें होनेवाली प्रवृत्ति या क्रियाको वस्तुका परिणमन निश्चयरूप समझते हुए उसके द्वारा अपनी आत्माका कल्याश नहीं हो सकता ऐसा दृढ़ श्रद्धान करना और हेयको हेय उपादेयको उपादेय मानकर कार्य करते रहना मना नहीं है वह तो वस्तुस्थितिकी मर्यादा है, उसको सम्यग्दृष्टि नहीं तोड़ सकता उसका वह पालन या रक्षा हमेशा करता है। अतः सम्यग्दृष्टि उच्च है। कोई भी सरागी जीव संयोगी पर्यायमें रहते हुए सब सरहका व्यवहार कार्य करना नहीं छोड़ सकता किन्तु उसको करता हुआ उससे सदा विरक्त या उदासीन ( रुचिरहित ) रहता है तथा यथाशिक्ति उसे छोड़ता भी है, यह विशेषा रहती है। उपसंहार व्यवहारनयके शानीको ही निश्चयनयका ज्ञान व आदरण होता है, परन्तु उसका तरीका पूर्वोक्त प्रकार ही है अन्य प्रकार नहीं है अर्थात् पेश्तर व्यवहारमयका आलम्बन करते कराते हुए
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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