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________________ १४५ लम्बक पारिव उदाहरण के लिये मान लो कि किसी साधु मुनिने उत्सर्गे संयम पालनेका मार्ग अपनाया अर्थात् चारों प्रकारका आहार त्याग कर उपवास धारण किया, दीगर सब काम बन्द कर दिये और ऐसा त्याग अनिश्चित काल तest foया, किन्तु यदि शरीरको अवस्था या पराधीनता ( बीमारी आदि) के कारण परिणामों में अशान्ति या संक्लेशता होने लगे तो क्या उसको शुद्ध एक बार विधि पूर्वक थोड़ा-सा आहार नहीं ले लेना चाहिये ? क्या पूर्वं प्रतिज्ञा पर ही अटल रहना चाहिये ? चाहे शरीर रहे या नष्ट हो जाय - किन्तु हम उपवास तो नहीं तोड़ेंगे इत्यादि, यह एकान्त पक्ष पकड़े रहना क्या उचित है ? नहीं, न्याय पक्ष तो यही है कि वह परिणामोंको शुद्ध पहिले रखे, जो उत्सर्ग मार्ग है । स्याग मार्ग है ) । यह नहीं कि उसके बिगड़ने पर भी कोरी हठ करके गांठका (मूल) शरीर छोड़ कर सदा के लिये ( मृत्यु होने पर असंयमी होना पड़ेगा ) संयमसे वंचित हो जाय, उससे महती हानि होती है । यदि कहीं थोड़ा-सा शुद्धाहार बतौर आंगन के आवश्यकता पड़ने पर लेता जाता तो उस पर्याय ( भव) में भी संयम पलता रहता और कर्मोका क्षय करके अधिक लाभ उठा सकता था। अतएव आत्म लाभ या कर्मोसे बचने के लिये 'अपवाद मार्ग' ( भोजन करना ) को ग्रहण करना सर्वथा अन्याय या पाप नहीं है, कथंचित् है, जिसका होना संयोगी पर्याय संभव है। सिर्फ लक्ष्यच्युत नहीं होना चाहिये ( वीतरागता की ओर दृष्टि रखना चाहिये ) शुद्ध एक बार दिनमें भोजन लेते समय भी साधुका लक्ष्य तप या संयमको ( वीतरागताको ) बढ़ाने व उसकी रक्षा करनेका रहना चाहिये। फलतः 'अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग सफल माना जाता है अन्य नहीं । इसी तरह 'उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद भी सफल माना जाता है । जैसे कि शारीरिक अस्वस्थता आदि समय शुद्ध अल्प आहार लेते हुए, लक्ष्य उत्सर्ग - वीतरागता रूप उपवासादि ) मार्गी ही ओर रखना ( रहना) चाहिये । अतएव वह अपवाद मार्ग भी ( भोजन करना भी ) कथंचित् उपादेय व हितकर है। परिणामोंमें शान्ति आती है तथा संक्लेशता मिटती है और शरीरकी रक्षा रहते हुए संयम पालन किया जा सकता है एवं उसमें अरुचि होनेसे संवर निर्जरा भी होती है इत्यादि लाभ हैं । अतएव इसमें भी कथंचित् उपादेयता व हितकरता मानना चाहिये यही अनेकान्त दृष्टि है, जो संयम शरीर आहार-विहार में हमेशा रखना चाहिये किम्बहुना यह प्रकरण उपयोगी समझ कर यहां विस्तारसे लिखा गया है, जिससे लोग भ्रम में न पड़े, नं एक पक्ष पकड़ लें, कि असमर्थता था रागादिको उत्कटता' के सबब संयम न पाल सकनेसे उसकी बुराई बताने लगे, उल्टा प्रचार करने लगें, उसका महत्त्व गिरा देवें, उससे अरुचि करा देवें इत्यादि । द्रव्यचारित्र द्रव्यचारित्र कह कर एक पक्षीय दृष्टि न करा देवें । द्रव्यचारित्र भो कथंचित् दृष्टिसे उपादेय व हितकर है। जब आत्माका उपयोग शुद्धतासे च्युत होता है तो गिरते समय यदि उसको शुभमें ठहराया जाय और उसके अनुसार योगों की प्रवृत्ति या निवृत्ति की जाय सो पुण्य बंधका लाभ होता ही है, जिससे पाप बंधसे बचता है। हिंसा आदि पाँच पापोंसे बच १. 'लॅ तप बढ़ावन हेतु नहि तन पोष तज रमन को पं० दौलतरामजी कृत छहढाला ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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