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________________ पुरुषार्थसिद्धधुपाय जाता है, जिससे कथंचित् अहिंसा धर्म भी पलता है, यह भी तो विचार करना अनिवार्य है अस्तुइस पर अवश्य ही हमेशा विचार करना चाहिये-उपेक्षामें नहीं डालना चाहिये, अन्यथा एकान्त दृष्टि ( पक्ष ) समझी जावेगी जो सदैव हेय है----मिथ्यात्त्व है। नोट-शुद्ध निश्चयनयको दृष्टि से यद्यपि सभी तरह की अशुद्धता हेय है अकर्तव्य है किन्तु अशुद्ध निश्चयनय मा महनारलयकी दुष्टिका अनभाव उपादेय है-पापबन्धसे बचाता है यह विचारणीय है अस्तु । शुद्धका नाम निश्चय और अशुद्ध का नाम क्यवहार ऐसा भी माना गया है। अथवा शुद्धका नाम परसे भिन्न ( तादात्म्यरहित ) और अशुद्धका नाम परके साथ संयुक्त होता है। अथवा अखण्डमें पदण्ड या भेद करना ( मानना ) ब्यवहार, और खण्ड नहीं करना निश्चय है। पर्यायको या पर । निमित्त) की अपेक्षासे पदार्थमें भेद करना ( मानना ) व्यवहार कहलाता है और पर्याय' या परकी अपेक्षासे पदार्थ में भेद नहीं करना निश्चय कहलाता है ( पूर्वमें पर्याप्त विवेचन किया गया है ) ! तदनुसार योगों व कषायोंके भेदसे चारित्रमें भेद करना व मानना, सब व्यवहार चरित्र है जैसे कि (१) इन्द्रिय संयम ( चारित्र) इन्द्रियोंको वशमें करना उनके विषयोंको छोड़ना यह एक भेद है। (२)प्राणिसंयम, द्रव्यप्राणोंकी रक्षा करना, दया करना, बनाना इत्यादि यह दूसरा भेद है। (३) कषायोंको छोड़ना, उनका त्याग करना, यह तीसरा भेद है । ( ४ ) योगों को रोकना, मन-वचन-कायको क्रियाको बन्द करना यह चौथा भेद है इत्यादि बहुतसे भेद होते जाते हैं | यथासभव उनका आलम्बन लेना अनिवार्य है । अन्तरंग संयम और बाह्मसंयम दोनोंका पालना कर्तव्य है। इसीको सामान्यतः उपयोगशुद्धि व योगगुद्धि कहा जाता है अस्तु। इन सब बातोंका ज्ञान परमागम ( अध्यात्मशास्त्र ) का ज्ञान हुए बिना नहीं हो सकता यह नियम है। तदनुसार प्रत्येक मुमुक्षुको अपना समय शास्त्रोंके स्वाध्याय में तस्वचर्चा में और अध्यात्मशास्त्रोंके परिशीलन में ही लगाना चाहिए, व्यर्थके आडम्बरमें और लौकिक कार्यों में समयको नहीं खोना चाहिये | चतुराई यही है कि जो कार्य जिसके जिम्मे हो सही कार्य बह करे, साधुको किसोके दवाउरेमें आकर पदविरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिये, उसका काम तो मोक्षमार्गकी साधना करना मुख्य है, पदके विरुद्ध कार्य करना अनर्थदण्डमें शामिल है इसका ध्यान रहे अस्तु । साधु या मुनिपद बड़ा उच्च व आदरणीय पद है, उसके बिना मुक्ति नहीं होतो, परन्तु वह हो.चाहिये आगमके अनुसार, तभी उससे लाभ होगा, यह पद देखा-सीखीका नहीं है--लोकेषणा व शिथिलाचारका नहीं है यह तो खांडेको धार है जरा चूके कि गये, बड़ी सावधानी रखनेकी जरूरत है। साधुओं ( मुनियों ) के ३ भेद, समयसार क्षेपण गाथा, १८१-१८२ पेज (गाथा नं० १२५ के आगे) (१) परिग्रहत्यागी साधु-जिसने बाह्य परिग्रह ( १० प्रकार धनधान्यादि ) का त्याग कर दिया हो वह ६।७ गुणस्थानवाला परिग्रहत्यागी कहलाता है। इनके प्रमाद व प्रवृत्ति पाई
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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