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________________ सम्यकारित्र १५३ जाती है तथापि लोग उन्हें साधु, मुनि, यति कहते हैं जो व्यवहार है। धर्मध्यानको मुख्यता वाले ये हैं। (२) जितमोही साधु-जिन्होंने बाह्य में मोहकर्मका बिलकुल ( निःशेष ) क्षय कर दिया हो, प्रवृत्ति बन्द कर दो हो, ध्यानस्थ हों। ८वेसे १० गुणस्थानवाले साधु जितमोही कहलाते हैं। अंतरंग परिग्रहसे रहित साधु अथवा ११ व गुणस्थानवाले भी उपशमकी अपेक्षा साधु कहलाते हैं इनके शुक्लध्यानका पहिला पाया रहता है व कभी धर्मध्यान भी हो जाया करता है। (३) धर्म संग रहित साधु-जो पूर्ण वीतरागी हो चुके हों ( ११-१२ ३ से लेकर आगे) तथा जो शुभराग व हत्तछाओंसे रहित हो गये हों, पूर्वके संस्कार भी बन्द या नष्ट हो गये हों, तथा शुक्लध्यानके दुसरे पाये वाले हों, उन परम व पूर्ण वीतरामियोंको धर्मसंग ( पुण्यानुबन्धी शुभराग) रहिस साधु कहते हैं। उनके पुण्यका बन्ध सिर्फ योगों द्वारा होता है जो स्थिति-अनुभाग शून्य रहता है अस्तु। इन्हीं को कषायरहित साधु भी कहते हैं। इन्हींको जघन्य मध्यम-उत्कृष्ट साधु कह सकते हैं । उक्तं च समयसारे । 'धर्मरहित साधु होता है' ऐसा नाममात्र सुनकर भड़कना नहीं चाहिये। उसका रहस्य समझकर, संतोष करना चाहिये शब्दोंके प्रकरणवश अनेक अर्थ होते हैं। धर्मके विषय में लोग बहुत भूलें तुर हैं । धर्मके अनेक भेद होते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए इति । भोगाकांक्षास्वरूप निदानबन्ध रहित, अर्थात व्यबहारधर्मरहित साधु यह उसका तात्पर्य है। शुभराग यह धर्मसंग कहलाता है --धर्मरूप परिग्रह इसोका नाम है। वीतरागताका होना ही, धर्मसंगका छूटना है। अतएव धर्म ( शुभराग ) को अंतरंग परिग्रह कहा गया है ऐसा विवक्षाभेद समझना चाहिये। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवाले, मुनिनाथ था स्नातक या देव भी कहलाते हैं । तीसरे-चौथे शुक्लध्यानवाले, उपचारसे कहे गये हैं ऐसा समझना चाहिये ।। ३१॥ १. अपरिम्गही अणिछो भणिदो णाणी य णेच्छदि धम्म । अपरिगहो दृ घम्मस्स जाणगी तेण सो होदि ॥२१॥ . अर्थ----जानी बीतरागी-परिग्रह रहित साधु धर्म या पुण्यकी अथवा मोक्षकी भी बांछा नहीं करता, फिर अन्य बातोंकी तो बात ही क्या है। वह बांछा या इच्छाको अन्तरंग परिग्रह समझ कर छोड़ता है, हो वह सबको जाननेवाला माता मात्र रहता है उसीसे मुक्ति होती है अर्थात् जो परिग्रह रहित हो जाता है वही मोक्षका पात्र होता है अन्य नहीं यह तात्पर्य है ॥२१॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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