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________________ १ ६. सम्यादर्शनाधिकार .... आगे आचार्य-निश्चयनय और व्यवहारमयके ज्ञानको आवश्यकता बतलाते हुए उसका फलं व महत्त्व बतलाते हैं व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तन्वेन भवति माध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ||८|| पद्य जिल जीवने व्यवहार चयझान सम्यक कर किया। यह त्याग दोनों पक्षको 'मध्यस्थ' मानो हो गया ।। बह ही सहन जिनदेशनाका लाभ पूरा रन नर । वह तस्वज्ञानी जैनवाशी समझकर होता अमर 14 अन्वय अर्थ---[ यः शिष्यः । जो शिष्य भव्यश्रोता [ सवेन व्यवहारनिश्चयो प्रबुध्य ] व्यवहारनय व निश्चयनयके स्वरूप व भेदको सम्यकप्रकारसे जान लेता है और [ माध्यस्थः भति ] माध्यस्थभावको धारणकर लेता है अर्थात निश्चय और व्यवहारमें रागद्वेषरूपपक्ष नहीं करता [स एक शिष्यः ] बहो शिष्य (श्रोता )[देशनायाः अधिकलं फलं प्राप्नोति ] जिनेन्द्रदेवके उपदेश ( शिक्षा ) का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है, मोक्ष जाता है 11८11 भावार्थ-जिनवाणीके लिखनेका और उसको सुननेका मुख्य उद्देश्य है कि उससे भूले भटके अज्ञानी जोव वस्तुका निश्चय और व्यवहार स्वरूप समझें अथवा अपना अनादिकालीन भ्रम व अज्ञाम मिटावें तथा ओ हेय हो उसे छोड़े व जो उपादेय हो उसको ग्रहण करें और ऐसा करके अभी सिद्धि प्राप्त करें ( साध्यको सिद्ध करें)। परन्तु इसके लिये और क्या क्या करना अनिवार्य है, यह जिज्ञासा स्वभावतः होती है जिसका उत्तर है कि जिनवाणीमें यह सामर्थ्य है कि वह स्वतः निश्चय और ववहारका कथन करती है अथवा स्याद्वादरूप कथन करती है । अर्थात् वस्तुमें रहनेवाले धौ को क्रमशः कहती है क्योंकि उसमें यह सामर्थ्य नहीं है कि एक ही बारमें सब धर्मोको कह सके । यतः वे सभी धर्म एक ही आधारमें परस्पर मेलसे रहते हैं । अतएव अनेक धर्मवाली वस्तु अनेकान्तरूप कहलाती है तथा उसकी कहनेवाली वाणी या भाषाका नाम 'स्यावाद' है। इस तरह अनेकान्तसाद वस्तु तथा उसको कहनेवाली भाषाका परस्पर वाच्यवाचक सम्बन्ध है ! अतएव यह जिनकाणी स्थाद्वादवाणी मानी जाती है जो सब एकान्तरूप विवादोंको मिटाकर मैत्री स्थापित करती है। ऐसी वाणी के द्वारा ही निश्चय और व्यवहारका उपदेश होता है। दूसरी कोई भाषा या वाणी में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह निश्चय और व्यवहारको कहनेवाली बाणीके' अवलम्बन या सहायता ( निमित्त से जीवोंको सम्यग्ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञानसे माध्यस्थ्य ( वीतरागतारूपनिर्विकल्प ) भाव १. पूर्वकथित गाथा ६ सूत्रपाहुट । २. माध्यस्थभावका अर्थ 'श्रामण्य' होता है या निर्विकल्प पक्षपातरहित, रागद्रेशरहित होता है ।।१५६॥ --प्रवचतर RANE
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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