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________________ पुरुषार्थसिद्धुपायं पद्य रागादिक धिकारसे जब यह आतम छुटकारा पाता। तभी होन कृतकृत्य और भवसिन्धु 'पार बह हो जाता ।। निश्चयका आलम्ब करे से यह पुरुषार्थ सिद्धि होती। जब तक व्यवहार ग्रहण करत है शुद्ध देश। उसकी रही । अन्बय अर्थ आचार्य कहते हैं कि [ यदा स: निश्चयनय के आलम्बन ( ग्रहण अनुभवन ) करनेसे जिस समय जोवद्रव्य [ मत्रविवत्तीतीर्ण अचलं चैतन्यं प्राप्नोति ] सम्पूर्ण विभावपर्यायोसे छूटकर ( जो ब्यवहारनयके आलम्बनसे हुआ करती हैं ) शुद्ध 'चैतन्यरूप सर्वविशुद्धज्ञानरूप अचल अवस्था ( पद ) को प्राप्त करता है [ तदा कृतकृत्यः सम्यक पुरुषार्थसिद्धिमापनः भवति ] उस समय वह कृतकृत्य ( सर्वथा शान्त-पूर्ण मनोरथ ) और सम्यक् पुरुषार्थकी सिद्धि { सफलता या मोक्षप्राप्ति ) को बह प्राप्त हो जाता है या कर लेता है, अन्यथा नहीं, इस प्रकार फल प्राप्त हो जाता है जब यह जीव निश्चयनयका आलम्बन ( आराधन ) करता है किम्बहुना । भावार्थ-जबतक संगोषः अभवः सोमव्यवहा{ असूद्ध यांचे जीवके साथ रहती है। तबतक जीव अनेक ( नाना) अवस्थाएँ धारण करता है। उस समयतक वह कृतकृत्य । सफल मनोरथ-निष्काम ) नहीं हो पाता और फलस्वरूप उसको अचलपद ( मोक्ष) नहीं मिलता अथवा उसके पुरुषार्थको सिद्धि नहीं होती, उसका सारा प्रयत्न निष्फल या बेकार जाता है अर्थात् साध्यकी सिद्धि नहीं होती, ८४ लाख योनियोंमें घोर दुःख उठाता हुआ भटकता फिरता है । यह सब अशुद्ध या व्यवहारनयके आलम्बनका फल है। अतएव सारांशरूपमें आचार्य कहते हैं कि यदि किसी जीवको संसार दुःखसे छूटनेकी अभिलाषा हो तो उसको चाहिये ( कर्तश्य है कि वह व्यवहारनयका आलम्बन करना क्रम २से छोड़ देवे या छोड़ता चला जाय और निश्चयनयका आलम्बन लेता जाय ( नकलीको छोड़कर असलीको ग्रहण करे ) यही पुरातन व उचित मार्ग है, ( उपाय है। दूसरा मार्ग सब मिथ्या गुमराह करनेवाला है। फलतः द्रव्य { आत्मा ) अनुसार चरण या बर्ताव करे अर्थात् आत्मा ( द्रव्य ) जैसी शुद्ध वीतराग ( रागादिक दोषोंसे रहित ) है वैसा ही उसे आचरण या चारित्र धारण करना चाहिये तभी बुद्धिमानी या भेदविज्ञानता है। जीवको इन सब बातोंका ज्ञान या पता जब सम्यग्दर्शन होता है तभी लग पाता है। सम्यग्दष्टि बड़ा चतुर व परीक्षक है मिश्चय व व्यवहारका पूर्ण ज्ञाता है। स्वानुभवसे आत्माको प्रत्यक्ष जाननेवाला है, कारण कि उस समय ( स्वसंवेदनके बच ) वह इन्द्रियादिको सहायता नहीं लेता। ऐसी हालतमें उसे अपनी शुद्धताका परिचय व स्वाद आ जानेसे उसे अकथनीय निराकुल सुख प्राप्त होता है और फिर उसको वैषयिक सुख नहीं भाते-उनसे विरक्ति या अरुचि हो जाती है इत्यादि विशे. षताएँ प्राप्त हो जाती हैं किम्बहुना यह सब निश्चयनयके आलम्बनका फल है- हेयोपादेयके जान का फल है इति । १. मुक्त।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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