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________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय दसणमट्टा भट्टा ईसमस स्थि णिवाणं । सिझस्ति धरियमा समक्ष सिज्झस्ति ॥१५॥ एकस्वानुप्रेक्षा संस्कृताया--दशनपटा भ्रष्टाः दर्शनभदस्य नास्ति निर्माणम् । सिध्यन्ति चास्त्रिना दर्शनभ्रष्टा न सिध्यन्ति ॥ १५॥ अर्थ-जो जोत्र सम्यग्दरेट अनि रहित हैं, जिनको सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता या होकर छूट जाता है, वे मिथ्यात्वके रहते हुए मोक्ष नहीं जाते न जा सकते हैं, तथा वे ही महाभ्रष्ट संसारमार्गी कहलाते हैं । ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि ही महाभ्रष्ट हैं-मोक्ष मार्गसे च्युत या महापातकी हैं । अतएव आत्मकल्याण के लिए 'सम्यग्दर्शन'को प्राप्त करना आद्य के मुख्य है-वही एक उपाय है। इसके विरुद्ध चारित्रको आत्मकल्याणका मुख्य उपाय मानना भ्रमपूर्ण है. इसलिए कि जो जीव सम्यग्दर्शन सहित होते हैं वे कदाचित् चारित्र । अन्तरंग बहिरंग या निश्चय व्यवहार ) से भ्रष्ट भी हो जायें तो भी वे शुद्धि करके (छेदोपस्थान करके } मोक्षको जा सकते हैं किन्तु सम्यग्दर्शन रहित जो जीव हैं के चारित्र सहित होनेपर भी ( द्रश्यलिंगी जैसे मुनि ) मोक्ष नहीं जा सकते, यह अकाट्य नियम है। सारांश-सम्यग्दर्शन ही आत्मकल्याणका मुख्य उपाय हैचारित्र व कषायका त्याग----परिग्रहका त्याग मुख्य उपाय नहीं है यतः बह पशुओं तककै पाया जाता है, परन्तु वे मोक्ष नहीं जाते, सम्यग्दर्शनकी कमी होने से यह भाव है।' नोट---सम्यग्दष्टि ही अन्य सब विकल्पोंको छोड़कर अपने झायक स्वभाव आत्मामें ही उपयोगको लगाता है उसीका आलम्बन लेकर आत्मकल्याण कर सकता है अन्य कोई जीव नहीं ऐसा समझना चाहिये और वही यथार्थ व्यवहार चारित्र धारण कर सकता है इत्यादि। तब यहाँ प्रश्न होता है कि क्या चारित्रका महत्त्व कम है ? वह धारण नहीं करना चाहिये। - इसका सयुक्तिक समाधान (२.) चारित्रका महत्व कमती नहीं है न उसके धारण करनेका निषेध है किन्तु बह सम्यग्दर्शनके साथ हो तो उसका महत्त्व है और वह धारण करने योग्य भी है क्योंकि उसासे लक्ष्य ( मोक्ष सुख ) की सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं यह नियम है । चारित्र धर्म है और उसका SPARENCE H १, उक्तब्ध-- न सम्यक्त्वसमं किञ्चिकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्त्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ११३४१ रन था. समन्तभद्राचार्य ।। अर्थ-तीन लोक और तीन काल में सम्यग्दर्शनके समान दुसरा कोई पदार्थ, आरमा { जीब) का कल्याण करने वाला नहीं है वह अद्वितीय व अनुपम है। अतएव उसीकी प्राप्ति व सेवा करना चाहिए । और मिथ्यात के समान कोई दूसरा पदार्थ, क्षात्माका अकल्याण ( अहित या बुरा ) करनेवाला नहीं है अतएव जीचोंको साहिये कि उसको छोष्ट देखें इत्यादि ॥३४॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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