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________________ सम्यग्दर्शन मूल कारण सम्यग्दर्शन है। फलतः सम्यग्दर्शन के सद्भाव ( मौजूदगी ) में ही ज्ञान व चारित्र पूजनीय ( आदरणीय ) होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन के होनेपर ही वह ज्ञान व चारित्र सम्यक् ( सत्य सही ) कहलाता है, और मोक्षका मार्ग बनता है यह विशेषता उनमें आ जाती है । अन्यथा वे संसारका ही मार्ग रहते हैं । अतएव मूल व मुख्य सम्यग्दर्शन ही सिद्ध होता है । निश्चय और व्यवहार दो तरहका चारित्र होता है। निश्चय चारित्र तो निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ ही आंशिक होता है जो मुक्तिका कारण है । किन्तु व्यवहार चारित्र जो शुभराग रूप होता है, गिरती अवस्थाका है जो पोछे होता है । अर्थात् जब जीन शुद्धोपयोग ( वीतरागता ) से च्युत होता है अर्थात् हटता है तब वह शुभ लगता है अर्थात् व्रत संयमादि धारण करने में लगता है, सो उससे पुण्यका बन्ध ही होता है निर्जरा नही होती, जिससे यह संसार में तबतक रुका ही रहता है- युक्त नहीं होता 1 अतएव वह भी हेय माना गया हैं, जिसको अज्ञानी जोव उपादेय समझते हैं। लेकिन अपवाद मार्गके समय ( शक्ति हीनता के समय ! उसको अवश्य ही धारण कारना चाहिये, जिससे अशुभ में उपयोग न चला जाय, यह ध्यान रखना चाहिए व शंका मिटा देना चाहिये । वह भी कञ्चित् महत्त्वको चीज है- सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है अपेक्षणीय है। चारित्रके प्रकरणमें ( ३७ में इसपर विस्तारसे प्रकाश डाला जायगा इत्यादि । सम्यग्दर्शनका आनुषंगिक या अविनाभावी सम्यक्चारित्र माना गया है । कोई भी सम्यग्दृष्टि ऐसा न मिलेगा जिसको सम्यक्चारित्र न हुआ हो व मोक्ष न गया हो ऐसा यथार्थ समझना चाहिये । अस्तु सम्यग्दर्शनादि तीनों रत्नत्रयरूप धर्म माने गये हैं जो परस्पर सम्बंद्ध रहते हैं। इसके सिवाय - सम्यग्दर्शनके दूसरी तरहले भेव (१) निसर्गजभेद, ( २ ) अधिगमज, मेद अथवा सराग व वीतरागभेद । (१) (क) जो सम्यग्दर्शन, विना किसीके उपदेशसे स्वतः ही विपरीत अभिप्रायसे रहित प्रकट हो, उसको निसर्गज या स्वभावज कहते है । इसमें मुख्यता, निमित्तकी नहीं होती और खासकर उपदेश या शिक्षाको आवश्यकता नहीं रहती । जैसे मेड़िया, शेर वगेरह पशुओं में क्रूरता शूरता स्वतः जन्मजात होती है, पक्षियों में उड़ना ( आकाशमें गमन करना ) आदि स्वभावतः होता है, कोई उन्हें सिखाता नहीं है। इसी तरह निसगंज सम्यग्दर्शन समझना, यह लो आत्माका गुण है अतः वह कभी भी विकसित हो सकता है, कोई आश्चर्य नहीं है । यद्यपि अन्तरंग (दर्शनसोहका उपशमादि ) और बहिरंग ( जिनबिम्बदर्शनादि ) निमित्त उस समय रहते हैं तथापि उनसे वह नहीं होता इत्यादि, किन्तु स्वकीय योग्यता ( उपादान) से ही वह होता है यह खुलासा है । I (२) (ख) जो सम्यग्दर्शन, दूसरेके उपदेश या शिक्षाको मुख्यतासे उत्पन्न होता है उसको अधिगमन सम्यग्दर्शन कहते हैं ] इसोका नाम देशना सम्यक्त्व है, अथवा आज्ञा सम्यक्त्व हैं। इसमें परके उपदेश आविकी मुख्यता रहती है खुदकी जानकारीकी मुख्यता नहीं रहती । ऐसा जीव, केवल इतना ज्ञान व श्रद्धान रखता है कि 'जिनेन्द्र भगवान्का कहा हुआ सभी सत्य १. उक्तव - सणमूको श्रम्मो व चारितं खलु धम्मो इत्यदि ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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