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________________ सम्यग्दशन होता है, परके बल-भरोसेपर मोक्ष नहीं होता। अतएव सदैव स्वावलम्बन करना चाहिये, यह बताना है। परावलम्बन छोड़ना और स्वावलम्बन करना ही उचित व हितकर है, यह सारांश है । जबतक संयोगो पर्याय में परका आलम्बन व ग्रहण त्याग रहता है तबतक जीव संसार से पार नहीं होता, उसो की चपेट में या धर-पकड़ में जाय उलझा रहता है यह नियम है, Eिर भी समाइसे काम लेनेपर वह संसारसे पार होता है कोई असंभव बात नहीं है इसलिए आगे शंका समाधान किया जाता है समझ लेना। नोट-उपर्युक्त सभी सम्यग्दर्शनोंमें मूल बात विपरीताभिनिवेश रहित पना होना अनिवार्य हैं ध्यान रहे। सम्यग्दर्शन हो जानेका परिचय ( शान ) कैसे होता है ? इसका उत्तर निम्न प्रकार है। सम्यक्त्वं तत्वतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम् । गौनरं स्थावधिस्वाम्सपीय ज्ञानयोद्वयोः ॥ २७.५॥ पञ्चास्थायी असरार्ध अर्थ--सम्यग्दर्शन आत्माका अत्यन्त सूक्ष्म गुण है अतएव उसका परिचय ( निश्चय या ज्ञान ) प्रत्यक्षरूपसे पूरा तो केवलज्ञानके द्वारा होता है तथा अपुर्णरूपसे या थोड़ा २ प्रत्यक्ष ( देश प्रत्यक्ष ) अवधि ( सर्वावधि-परमावधि ) ज्ञान एवं मनःपर्यय झानसे भी होता है। इसके सिवाय उसका परोक्ष ज्ञान, मतिथ त ज्ञानसे भी होता है ऐसा समाधान समझना चाहिए । अर्थात् उसकी जानकारीका होना असम्भव नहीं है किन्तु येन केन प्रकारेण सभी जीवों को हो सकती है किन्हींको प्रत्यक्षरूपसे व किन्हींको परीक्षरूपसे ( अनुमानादिद्वारा ) लेकिन प्रत्यक्षरूपसे, मतियुक्त ज्ञान व देशावधिज्ञान द्वारा उसका परिचय नहीं हो सकता यह नियम है किम्बहुना । . हमारा { जीयका ) आत्म कल्याण कैसे हो? इस प्रश्नका उत्तर {१) संक्षेपमें उन प्रश्नका उत्तर एक ही है और वह 'सम्यग्दर्शन'को प्राप्त करना है. व मिथ्यात्वको छोडना है। यही एक अद्वितीय और सर्वोत्कृष्ट उपाय (मुख्य) है। दूसरा उपाय, चारित्रको धारण करना या परिग्रह तथा कपायको छोडना गौंण है-- मुख्य नहीं है । कारण कि संसारकी मुख्य जड़ : नीव रूप) मिथ्यात्व हो है उसोके होने पर कषायभाव व परिग्रह धारण करना होता है. ये सब उसीकी डाली पते हैं। मिथ्यात्वको बदौलत ही गति आदि सब प्राप्त हुआ करती हैं। और मिथ्यात्वके छूट जानेपर एवं सम्यग्दर्शनकै प्राप्त होनेपर क्रमशः अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल परावर्तनकालमें सभी तरहका संसार छूट जाता है और सदा स्थायी मोक्ष प्रात हो जाता है किन्तु मिथ्यात्वका अंश भी रहते संसार नहीं छूटता न जन्म, मरण, रोग, शोक आधिव्याधि दुःख ही छूटते हैं न आकुलता छूटती हैं न परिग्रह च कषाय छूटती है तब निरन्तर जोर दुःखी हो रहता है किम्बहुना । इसीलिए आचार्य प्रवर स्थविर श्री कुन्दकुन्द महाराजने स्वविरचित द्वादशानुप्रेक्षामें एक ही मुख्य उपाय आत्मकल्याणका बताया ( कहा ) है यथा-- . . .
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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