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________________ शिक्षामतप्रकरण चौथे पंचम षष्ठम गुणकृत, क्रमशः नाम धराप हैं । मोक्षमागके चालनहारे, जातिभेद ठुकराए हैं ।। १५१ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य आगे कहते हैं कि [ मोक्षकारणगणानां संयोगः पायं, विभेदमुकं ] मोक्षके कारणभूत गुणा ( सम्यग्दर्शनादित्रय ) का संयोग अर्थात् प्राप्ति, जिसको हो जाये, वह 'पात्र' कहलाता है। उसके तीन भेद आगममें कहे हैं। यथा | अविरतसम्यग्दष्टिः, विरताविरसइत्त, सकलविच अविरतसम्यग्दष्ट चतर्थ स्थानवाला । १ जघन्यत्र । विरतावित अर्थात पंचम गुणस्थानवाला (२) मध्यमपात्र । सकल तो अर्थात् छठवां आदि गुणस्थानवाला ( ३) उत्तम पात्र । इनका लक्षण या स्वरूप पेश्तर कई बार बताया जा चुका है सो समझ लेभा ।। १७१ ।। भावार्थ-मोक्षके कारणरूप गुण या मार्गरू उपाय तीन हैं, सम्यादर्शन, सभ्यज्ञान, सन्याचारित्र । इनमेंसे जिन्हें एक या दो या तीनों प्राप्त हो जाते हैं वही 'पात्र' कहलाता है। और जिसको ये प्राप्त न हो वह अपात्र या कुपात्र कहलाता है व उसको मोक्ष प्रास नहीं होता, वह संसारमें ही घूमता रहता है। यहाँ पर कार्यपर्यायको मुख्यता होनेसे व्यक्तिरूप { प्रकट हए) सम्यग्दर्शनादिकी प्रामि वाला हो पात्र' कहा गया है अर्थात् जिसके भव्यत्व शक्तिका विकास हो चुका हो वही 'पात्र' है। वैसे तो कारणको अपेक्षासे जिसके भव्यत्वशक्ति ( गुण । बा विकास होनेवाला हो वह भी यात्र' (योग्यता वाला ) कहलाता है ऐसी शास्त्रीय चर्चा है, परन्तु अभी यही पर कारणपर्यायका जिक्र ( कथन ) नहीं है सिर्फ कार्यपर्यायका है । तदनुसार चतुर्थ गुणस्थानवाला अवती-असंयमी भी, सम्यग्दर्शन प्राट हो जानेको अपेक्षासे 'पात्र' कहा गया है वह पात्रोंको श्रेषामें मामिल है। इसी तरह विरताविरत पंचम गुणस्थानवाला पूर्ण व्रतो नहीं है फिर भी सम्यग्दर्शनको अपेक्षासे 'पात्र' है। छठा गुणस्थानवाला भी अंतरंग परिग्रह रहित पूर्ण व्रती नहीं है तथापि सम्यग्दर्शनकी अपेक्षासे 'पात्र' है इत्यादि। अतएव मोक्षमार्गी तीनोंको समझना चाहिये किम्बहुना । विना सम्यग्दर्शनके 'पात्र' नहीं हो सकता । तब प्रश्न होता है कि क्या द्रव्यलिंगी मुनि ( सम्यग्दर्शनके विना २८ गुणधारी दिगम्बर मुनि ) पात्र नहीं हो सकते ? क्या ये पात्र या कुपात्र है ? इसका उत्तर इस प्रकार है कि निश्चयनयसे वे ( सम्यक्त्वके विना ) मोक्षमार्गी नहीं हैं न 'पात्र' है किन्तु वे व्यवहारनपसे प्रतादिक पालनेको अपेक्षामे 'कुपात्र' हैं अपात्र नहीं हैं। कारण कि वे व्रतादि पूर्ण धारण करते हैं अर्थात उनके करपानुयोगके अनुसार 'सम्यग्दर्शन' तो है नहीं, किन्तु चरणानुयोग के अनुसार बाह्य, चारित्र पाया जाता है जिससे असंयमी व अब्रती नहीं हैं। लेकिन वे मिथ्याल साथमें होने की वजहसे 'कुपात्र' कहलाते हैं। तथा वे अपात्र नहीं है, इसलिये कि उनके सिर्फ सम्यग्दर्शम नहीं है शेष नत हैं । परन्तु अपात्रके म सम्यग्दर्शन होता है मत होते हैं यह भेद है, जैसे संड मुमंड फकीर वगैरह। ऐसा समझना चाहिये 1 फलांशमें--पात्रीको दान देनेसे सभोगभूमिके सुख मिलते हैं और कुपायोंको--( सम्यक्त्व . रहित व्रतधारियोंको ) दान देनेसे कुभोगभूमिके सुख मिलते हैं और अपात्रों को दान देनेसे कोई
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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