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________________ MARAHR प्रस्तावना-भूमिका TERNatus. Samaste मा । AREE और खुलासा, अर्थात् रत्नत्रयका आमूलचूलवर्णन, हिसा आदि पाँचपापोंका निश्चय-ज्यवहारस्वरूप, अहिंसाका स्वरूप, हिंसाके ४ भेद, उनका विस्तार एवं तर्क व समाधान, फलका भोक्ता, सत्य-असत्यका अनुपम निर्धार, अथवा गृहस्थ-अणुव्रतो के व्यवहारका पालन करते समय भी व्रतकी रक्षाका उपाय आदि पर्याप्त बत्तलाया गया है । गरज कि पंचाणुनक्त पालनेकी पूर्ण रीति बतलाई गई है। अतिचारोंका भी बढ़िया विश्लेषण किया गया है। मिन्यात न अनंतानुबंधी आदि चारों कषायोंका कार्य व उनमें होनेवाला विवाद मिटायर गया है । बाह्य व अन्तरंग परिग्रहका त्याग एवं श्रावकके उत्तम-मध्यम-जनन्यभेद, गृहथिरत, गृहनिरसका खुलासा आदि इसमें है। रत्नत्रय और वत पालनेका फल, गुणवत-विसावतोंके भेद व स्वरूप, सामायिकशिक्षावत पालनेकी विधि, देवपूजनकी प्रारक सामग्री, जपवासको समाति है कालपी मर्यादा, धुतकी मर्यादा, पिंडशुद्धि (आहार शुद्धि) गुणवतों व शिक्षाश्रतोंमें मानार्योका मतभेद, दाशाके ७ गुण व नवधा भक्ति, गुणोंके अर्थ करने में भूल, व विपरीत प्रचार, पात्रोंके ३ भेद, उसमपात्रों (मुनियों की वृत्ति ( बरताव ), उनका आहार, (अनुद्दिष्ट) प्रतिमास्वरूप, १२ वतीसे उनकी उत्पत्ति उनके भेद, सल्लेमा व विधि, आस्मातका स्वरूप व निषेध, एवं भेट, बारह ब्रतोंके अतिचार । पाँच अणुवल व मात शोलोंका समुदाय ही १२ बारह छत है, विरत पृथक है । साथ ही भानोपयोगी मात तत्वोंका अविपरीत श्रद्दान, ज्ञान, आचरण भी बतलाया गया है. अनुजीवी प्रतिजीवी गुणोंका सयुक्तिक विश्लेषण व विस्तृत परिशिष्ट आदि अनेक चीजें इसमें है। प्रश्नोत्तरके ख्यमें आनन और चमका भेद, १० पशवम का स्वरूप, १२ अनुप्रेमाओंका स्वरूप, २२ बाईस परीषहोंका स्वरूप, व कुछ विशेषताएँ, अन्तिम निष्कर्ष, मुनिपद प्राप्त करनेकी योग्यता, रत्नत्रयकी अपूर्णता और उससे होनेवाली हानि एवं आंशिक लाभ, चरित्रधारियोंके भेद, पुद्गलबंधक विषयमें प्रकाश, सम्यग्दर्शनसे बंध नहीं होता, साथमें रहनेवाले कमायभास होता है, इसका पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष द्वारा निर्धार, निश्चय व्यवहारकी एकत्र स्थिति, मोक्षमार्गको एकता व उससे सिद्धि, मुक्तात्माका स्वरूप, अन्यातका खंडन, अन्तिम शिक्षा, अन्धकारको भावना व मान्यता । ग्रन्थकार आचार्य अमृतचन्द्रका कुछ परिचय धोरप्रभुके वंशज, तीर्थप्रवर्तन-प्रकाशनको अपेक्षा नंदीसंघकी प्राकृतपट्टालिके अनुसार महावीरस्वामीकी २६ वीं पीढ़ीमें अईवली भुमिराज हुए, ३० वी पीड़ीमें माननन्दी मुनिराज हुए । माषनन्दी स्वामीके दो शिष्य रहे । ( १ ) जिनसेन ( २ ) धरसेन, जो आचार्यपदसे विभूषित हुए। लदनुसार श्रीजिनसेवाचार्यके शिष्य श्रीकुन्दकुन्दाथार्य और श्रीधरसेनाधार्यके शिष्य श्रीपुष्पदन्त व भूतबलि हुए, जिन सभी परमपूज्य आचार्योंने महान २ ग्रन्थ रचकर जैनधर्मका भारी उधीत क्रिया । इस हिसाबसे श्रीधरसेनाचार्य वर्धयाग ( महावीर ) तीर्थकरको ३१ वी पौड़ी में हुए और. कुन्दकुन्दस्वामी ( आचार्य ) पुष्पदन्त-भूतबलि आचार्य ३२ वी पीड़ीमें हुए। इसलिये धरसेनाचार्य के काकागुरु अर्थात् गुरु ( जिनमेन )के सहपाटी भाई ( घरसेन )के भी शिष्य होते है। सदनुसार श्री कुन्दकुन्दस्वामी और पुष्पदन्त-भूतवलि स्वामी परस्पर गुरुभाई सिद्ध होते हैं संक्षिस यह वंश परिचय है । ग्रन्थ रचना और काल परिचय पूज्य श्रीमाधमन्दी आचार्य एवं उनके शिष्य, जिनसेन व धरसेन ये सभी भगवान महावीर के निर्वाण होनेके पीछे ६८३ वर्ष बाद कभी हुए हैं, जिन्होंने अत्यन्त उच्चकोटिके अनेक अन्योंकी रचना की है, जिनमें MARATHI
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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