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________________ = अन्तिम निष्कर्ष 1 प्रज्ञावान अन्य सब परसे अरुचि ही करता है, हेय समझता है, तथापि विवशतामें परका उपभोग करता है | उससे राग होता है, बन्ध व सजा प्राप्त करता है । सिर्फ विशेषता यह है कि वह बंध अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरसे अधिकका नहीं होता, प्रतिसमय कमती-कमती ही होता जाता है और अन्त में अपुद्गल परावर्तनकाल पूराकर मोक्षको चला जाता है। श्रद्धा उसकी सदैव एक जातिको हेय हो रहती है वह कभी नहीं बदलती जबतक सम्यग्दर्शन रहता है, हाँ वह कभी मन्द स्मृतिरूप और कभी तीव्र स्मृतिरूप अवश्य रहती है, जिससे मूलमें भूल नहीं होती । areer ऐसा हुआ हो करता है जबतक कि रत्नत्रयको पूर्णता नहीं होती, वहतिक भाव ( रागादि ) हुआ ही करते हैं । सम्यग्दृष्टिज्ञानीके जब ज्ञानचेतना अर्थात् शुद्ध स्वरूपकी अनुभूति (सुद्धोग होनी है तल बंद नहीं होता ( यही ज्ञानधाराका बहना कहलाता है ) तथा जब उपयोग हटकर अज्ञानचेतनारूप होता है अर्थात् रागादिरूप अशुद्ध परिणतिका अनुभव करता है ( कर्मधारा बहती है ) सब कर्मचेतना ( चिन्त्वन या अनुभव ) या कर्मफलचेतना होनेसे कर्मो का बंध होता है । इस प्रकार निर्धार समझना चाहिये । यही कलश में कहा गया है ||२१|| ४१५ विशेषार्थ - शास्त्रों में जहाँ-तहाँ यह लिखा है कि सम्यग्दृष्टिके बंध नहीं होता है तथा उसका बंध मोक्षका कारण है, इत्यादि उस एकान्तका खण्डन इस श्लोक में किया गया है कि सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शनादि तीनोंकी अपूर्णता रहनेतक अर्थात् पूर्णता होनेके पहिलेतक बराबर रागादि कषायोके रहते हुए उनसे बंध होता है और वह बंध मोक्षका कारण ( उपाय ) नहीं है किन्तु बंधन या संसारका कारण ( उपाय ) है । इस प्रकार खुलासा श्री अमृचन्द्राचार्यने किया है, उसको सीधा समझना चाहिए। उल्टा नहीं समझना चाहिए। इसकी पुष्टिमें आगेके श्लोक भी लिखे हैं । भव्यजीव ( मुमुक्षु ) संगति faठालकर श्लोकका अर्थ करें और समझें तभी कल्याण होगा । विवक्षा समझना अनिवार्य है | आचार्य -- आगे बन्ध व मोक्षके कारणोंका और भी खुलासा करते हैं। जिससे कोई भ्रम न रहे । १. येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधन नास्ति । येनांशेन तु रामस्तेनांशेनास्य बंधनं चास्ति ।। २१२ ॥ ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धम् । अज्ञानतनया तु श्रावन्, बोधस्य शुद्धि निरुणद्धि नंः ||२२४ || --कलश समयसार अर्थ - जब ज्ञान अपने शुद्धस्वरूपमें अर्थात् सिर्फ ज्ञतिक्रियामें स्थिर या लीन होता है ( रागादिरूप अशुद्धता नहीं रखता ) तब कोई बन्ध नहीं होता-ज्ञानका ही प्रकाश रहता हैं । लेकिन जब वही ज्ञान अपने शुद्धस्वरूप ( जप्तिमात्र ) को छोड़कर अज्ञान या धारण करता है तब बन्वादि अवयय होता है । इस प्रकार बन्धका मोक्षका कारण शुद्धता है यह तात्पर्य है ॥२२४॥ रागादिरूप अशुद्धताको कारण अशुद्धता है और »
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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