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________________ पुरुषार्थसिद्धथुपात्र निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रय १...वीतरागता सहित स्वाचित अनुभवरूप ) सम्यग्दर्शनादित्रय-निश्चयरत्नत्रय कहलाता है जो दसवें गुणस्थान तक मुनियोंके आंशिक ( कुछ रहता है इसीलिए बे काचिन देशचारित्री कहलाते हैं पूर्ण या यावाल्यातचारित्रो नहीं कहलाते । और २-प्रशस्त सासहित सभ्यग्दर्शनादित्रय–व्य प्रहाररत्नत्रय कहलाता है वह भी दश गुणस्थानतक आदिशक ( एक देश ) रहता है। सभी वह चित्रलाचरणी । रागविरागस्य मिन भाववाला ) कहलाता है। इस प्रकार निश्चय व्यवहारकी संधि (एकत्र सहावस्थिति ) रहती है कोई ... विरोध नहीं आता, परन्तु वह मिश्रपना मोक्षका मार्ग नहीं है। मोक्षका मार्ग खालिश (शुद्ध) वीतरामरत्नत्रय है, दूसरा नहीं ऐसा समझना चाहिए । फलतः मोक्षमार्ग दो नहीं हैं कथनरूप मोक्षमार्ग, अर्थात् फरक बताने के लिए शब्दों द्वारा अशुद्ध मोक्षमार्गका कयन करना ( शब्दरूप ) व्यवहार मोक्षमार्ग है क्योंकि शब्द जड और जड पराश्रित है अत: वह व्यवहार या उपचार है। मोक्षमार्ग स्वाचित है जो नेतनता रूप है और वही अनिर्वचनीय है, उसकी प्राप्ति हो जानेपर मोक्ष प्राप्त हो जाता है, उसमें कोई सन्देह नहीं है। चाहे उसका कथन किया जाय या नहीं, वह .बराबर जीवको मोक्ष पहुँचा देगा इत्यादि । निश्चय और व्यवहारका भेद समक्षना चाहिए। किम्बहुना । ज्ञान या चेतना मोक्षका मार्ग है जहतारूप नहीं है, यह सारांश है । अस्तु । न्यायपद्धति यह है कि असलीको पहिचान या भेद करनेके लिए, नकल का भी कथन किया जाता है किन्तु वह नकली-कली ही रहता है, अभीष्ट सिद्धि नहीं कर सकता व उसको आदर नहीं दिया जा सकता अर्थात् ब्रह मान्य नहीं होता। तदनुसार निश्चय ( सत्यभूतार्थ ) मोक्षमार्गका महत्व दिखलाने के लिए, यदि व्यवहार ( असस्य अभूतार्थ. ) मोक्षमार्ग का स्वरूप ( फरक बताने के लिए) बतलाया जाता है तो वह सत्यरूप नहीं हो जाता है, अपितु वह असल्म ही रहता है यह खुलासा है ।।१६।। उक्तञ्च। धर्मप्रथत्तक दीक्षादायक मुनि { धर्माचार्य गुरु ) का कर्तव्य भारतीय सनातन शिष्ट परंपराके अनुसार धर्मोपदेशकों आचार्यों गुरुओं अर्थात् धर्मप्रवर्तकोंहितोपदेशकोंका यह कर्तव्य रहा है कि वे स्वयं धर्मात्मा (धर्म के नेता-प्रापक ) बनकर दूसरोंके लिए धमपिदेश देते रहे हैं, तभी सनका प्रभाव दूसरों पर पड़ला रहा है। जिसके उदाहरण---- तीर्थकर गणधर-आचार्य आदि हैं, जिन्होंने स्वयं मोक्षमार्गको प्राप्तकर दूसरोंको बताया है। दिव्य १. एको गोशपथो म एए नियती दानियल्यात्मकः । तव स्थितिमति यस्तमनिश यायेच्च चेतसि ।। तस्मिमेव निरन्तरं विहरसिं प्रख्यात राज्यस्पशन् । सोऽवयं सम्यस्य सारमनिराजित्योदयं विन्दति ।।२४०। समयसारकलश।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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