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________________ पुरुषार्थसिद्धषुषाय अज्ञानका संस्कार हटानेसे ही उपयोग स्थिर हो सकता है. दूसरी तरहसे नहीं यह नियम है, पो करा। (१) व्यवहार उपगृहन-बुभ रागरूप है, मार्दव आदि धर्म की भावनारूप है अर्थात् कषायकी मन्दतारूप-पुण्यबन्धके कारणरूप है ऐसा भेद समझना चाहिए। परन्तु इसमें भी हेय बद्धि रखने वाला ही मोक्षमार्गी बहलाता है किबहुना सर्वत्र विरागभाव और रागभावका ही मूलभेद है ऐसा समदाता परन्तु संगीमीयमें दोनों तरह के भाव होते हैं कोई नई या अपूर्व या अनहोनो चीज नहीं है। अतः कोई भ्रम या संशय नहीं करना चाहिये, सभी नियत है-- अनियत कोई नहीं है। वस्तुका स्वभाव व परिणभन सब स्वतन्त्र है, सम्बग्दष्टि, इस सबको आगम द्वारा जानता व श्रदान करता है क्योंकि वह केवलीको वामीका पूर्ण श्रद्धालु होता है अस्तु । इस प्रकार निश्चय व व्यवहार उपगूहनका कथन किया गया है ||२७|| ___ ६. स्थितिकरण अंगका स्वरूप बताते हैं कामक्रोधमदादिषु चलितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।।२८।। SHIKHister पद्य TREATME0:011 धर्म मार्ग से विचलित करने वाले कामादिक होते। उदय अवस्था होने पर वे विचलित धर्महिसं करते। उसी समय जो युति से या शास्त्र देशना से करते । स्थिर निज पर को धर्महि में, सरवां अंग पाल सकसे ॥२८॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ न्यायान वर्मभो न्यायमार्ग अर्थात् धर्ममार्गसे [चजितु] विचलित करनेके लिए या विचलित करने वाले [ कामझोत्रमदादिपु उहिलेषु वेदत्रय, क्रोध मान आदि कषायोंके उदय होने पर, परिणामोंमें विकार हो ही जाता है अतएव सम्यग्दृष्टिको [ आत्मनः परस्य च ] स्वयं अपनी आत्माको तथा परकी आत्माको [ श्रुतं युक्रया अपि J शास्त्र या आगमके उपदेश द्वारा अथवा युक्तिके द्वारा अथवा आर्थिक सहायता द्वारा [ मिथलिकरणं कार्यम् । न्यायमार्ग में स्थिर करना चाहिये। तभी छटवां स्थितिकरण अङ्ग पल सकता है ऐसा जानना बारा १. वेदत्रय। . २. धर्म या स्वभाव । ३. वनामवरणादापि चलला धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञ: स्थितिकरणमच्यते ॥१६॥र० श्रा अर्थ----दर्शन शान चारित्ररूप धर्म ( न्याय ) से विचलित होनेवाले जीवोंको धर्मसे प्रीति रखनेवाले । जीवोंके द्वारा जो पुनः धर्म में स्थिर किया जाता है, उसको विद्वानोंने स्थितिकरण अंग कहा है ऐसा समझना पाहिये ॥१६॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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