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________________ सम्यग्दर्भम यहाँ पर निश्चय व्यवहार दोनों भेद कहे गये हैं। भावार्थ-जन्न संसारी जीवोंके कर्मोंका और खासकर मोहनीय कर्मका या उसके भेद क्रोधादि २५ का तथा मिथ्यात्वादि का कुल २ का उदय आता है तब जीवोंके मन या क्षयोपशम ज्ञान उपयोगमें विकार उत्पन्न होता है अथवा रागादिरूप विकारीभाव प्रकट होते हैं । सत्ता में रहनेपर कुछ नहीं होता यह नियम है । ऐसो स्थिति में जीव, धर्भ ( स्वभाव-न्याय ) से विचलित या भ्रष्ट अवश्य हो जाते हैं। उस समय विवेकी जीवोंका कर्तव्य हो जाता है कि वह स्वयं अपनेको आगमके स्वाध्याय या तत्त्वचिन्तवनके द्वारा परिणामोंको ) सुधारे--उपयोगको विकारकी औरसे हटाकर स्वभावमें लगावे और दूसरे जोवों को भी समझाये ( उपदेश देव । अथवा आवश्यकताके अनुसार विपत्तिकालमें धनादिक ( पुंजी) की सहायता देकर धर्म में स्थिर करे, यह एक उपाय धर्म साधन का है। कारण कि संयोगोपर्यायमें कर्म उदयमें आते हैं.ारीर बेकाम होता है धनादिक समाप्त हो जाता है तब रागोद्वेषी मोही जीवको आकुलता हो जाती है चित्त विक्षिप्त हो जाता है गहस्थाश्रमके चलानेकी जिम्मेवारी उसपर रहती है इत्यादि, अत: सब द्वारे बन्द हो जाने पर चिन्ता व धर्ममें शिथिलाचार होना संभव है। तथा 'न धर्मों धार्मिकैविना' धर्मके चलानेवाले धर्मात्मा जीव ही होते हैं उनके बिना धर्म नहीं चल सकता 1 ऐसी कठिन परिस्थितियों में धर्मवत्सल दयालु धर्मात्माको धर्म से एवं उसके पालनेवाले धर्माश्माले निरपेक्ष वात्सल्य होना ही चाहिए। तभी वह स्थितिकरण अङ्गको पालनेवाला हो सकता है इत्यादि । सर्वत्र विवेककी महती आवश्यकता है। सूत्रकार उमास्वामी महाराजने भी 'परस्परांपग्रहो जोदानाम्' ऐसा सुत्र लिखा है। स्थितिकरण अंगके २ भेद ( १ ) निश्चय स्थितिकरण---रत्नत्रय धर्म में निर्विकल्प होकर उपयोगको लगाना अर्थात् यथासंभव वीतरागतारूप स्वभाव, दत्तचित्त होना, निश्चय स्थितिकरण कहलाता है यह स्वाश्रित है । वास्तव में यस्तुका स्वभाव उत्सर्गरूप' है अर्थात् परके त्यागस्य परसे भिन्न रहना' है, अपवाद वस्तुका स्वभाव नहीं है निभात्र है ऐसा जानना चाहिए । कदाचित् कर्मोदयके समय परिणाम धर्मसे विचलित हों तो उनको धर्ममें पुनः लगाना स्वकीय स्थितिकरण है वह अनिवार्य व निश्चय रूप है अस्तु। (२) व्यवहार स्थितिकरण..जब जीवका उपयोग शद्ध स्वरूपसे हटता है तब जो कोई दुसरा धर्मात्मा, धर्मसे संयत हो रहे अन्य जीवको देखकर उसके निवारणार्थं मन में एक करुणाभाव या दयापरिणाम उपस्थित करता है वह शुभराम हप है। उसके बलसे प्रेरित होकर वह उन अन्य १. प्रवचनसार माथा २२४ देखी। कि किन्त्रणत्तिता अषणरत कामिणोऽयदेहेखि । ___ संगत्ति जिवंरिदा अडिकम्मत्तिमूहिष्टा ।।२२४।। अर्थ .....जब देह भी साथी आमासे भिन्न है...आत्मा अकेला है तब अन्य चीजोंको भिन्नताका क्या प्रश्न या सके है ? बैं तो सन्न प्रत्यक्ष जुदे हैं ही ऐसा सत्य समझना चाहिए यह जिनेन्द्रदेवका कहना है ।२२४६ .. NAWAPUN. MAHARASHTRA)
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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