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________________ ५४२ पुरुषार्थसिद्धधुपाय सबकी संगति या एकीकरण (मैत्री) [ स्याद्वस्व ( अनेकान्त ) को अध्यक्षतामें, द्रव्यार्थिक व पर्याविनयसे विचार ] (१) द्रव्याधिको अपेक्षासे सभी में एकसमान (अखंड या अभेदरूप निर्विकल्प ) हैं अर्थात् उन द्रव्योंके गुण व पर्यायोंके प्रदेश' जुदे जुदे न होनेसे एकरूप ( पिंडाकार ) हैं। तभी तो द्रव्यका लक्षण 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' कहा गया है। भतार जब उसमें कोई भेद ही नहीं है तब फिर अन्य विपक्षरूप भेद या आकार ( व्यवहार कैसे हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते। यदि कोई बिना समझे अज्ञानतासे या एकान्तसे ( स्याद्वादको बिना जाने माने अर्थात् वस्तु अनेक धर्मरूप है, ऐसा अनुभव किये बिना ) भेद करे या माने तो वह व्यवहार मिथ्यादृष्टि होगा कारण कि उसने वस्तुस्वरूपको समझा ही नहीं हैं, अन्यथा भेद कभी नहीं करता अर्थात् सर्वथा भेद न करता, न कहता । विचारनेकी बात है कि जब मूलद्रव्य एकमात्र अखंडरूप या अभेदरूप है, दूसरा कोई आकार या विपक्ष उसमें नहीं है तब वैसा खंडरूप उसको मानना बराबर ह रूप मिथ्यात्व व मूर्खता है। हां यदि किसी कारणवश भेदका मानना अत्यावश्यक हो तो उसको पर्याय ही मानना अर्थात् वह भेद पर्याय ( परिणमन में ) करना, द्रव्यमें नहीं करना तथा पर्यागमें भी सर्वथा भेद नहीं करना, कथंचित् भेद करना याने स्याद्वादनयका आश्रय लेना जो सच्चा निर्णायक व अध्यक्ष है। इसका खुलासा इस तरह है कि द्रव्यगुणपर्यायके प्रदेश जुदे जुदे तो हैं नहीं, अतएव तीनों अखंड या अभेदरूप द दे जुदे हैं अतएव कथंचित् भेदरूप भी है । ( निश्चयरूप ) हैं और प्रकृत में 'स्वाश्रित आदि पन्द्रह निश्चयके लक्षण' सर्व सपक्षरूप अखंड प्रदेशी हैं। अतएव नाम भेद होनेपर भी (लक्ष्य के साथ अभेद रूप है ) अर्थभेद नहीं है। सभी एकसमान एकाकार याने अजहद्वृत्ति हैं, ( स्वरूपमें अवस्थित हैं ), उनमें नैयाधिकादि परमतवालों को तरह सर्वथा भेद नहीं है, जिससे मिथ्यात्व सिद्ध हो। शेष जो 'पराश्रितादि १५ विपक्षरूप हैं, वे सब अन्याकार याने निश्चयके आकारोंसे भिन्नप्रकार आकारवाले ( लक्षणवाले ) होनेसे, भेदरूप बनाम व्यवहाररूप है। ऐसा निश्चय और व्यवहारको खुलासा रूपसे समझना चाहिये जिससे कोई भ्रम न रहे, गड़बड़ी मिट जाय। इसमें भारी विवाद है। यदि एकबार हृदय (पक्षपातरहितचित्त ) से इसको स्याहावनयके आधारपर समझ लिया जाय तो हमेशा के लिये सुखका स्वाद आने लगे, दुःख दूर हो जाय इत्यादि अनेकलाभ होने लगें। संक्षेपमें ग्रथ और पर्याय में अभेद व अवश्य जान लेना चाहिये। क्योंकि अनादिकालसे सर्वया मेवरूप सब वस्तुएँ हैं ऐसी एकान्तधारणा जीवोंको बनी हुई हैं जो गलत या अभूतार्थ है । असलमें उनमें कथंचित् भेद है ऐसो धारणा कर लेना चाहिये तब कल्याण होगा | व्यवहार देय है और निद्रय उपादेय है । } १. क्षेत्र या आधार २ द्रव्यपर्यायोक्तयोरव्यातिरेकतः । प्रयोजन मेदाच तन्नानादं न सर्वथा ॥ ७ आतमीमांसा सन्तमद्राचार्य । भावार्थ---कहीं लक्ष्य (साध्य और लक्षण ( साधन ) अभिन्नमदेशी (आत्मभूत ) होते हैं और कहीं लक्ष्यलक्षण भिन्नप्रदेशी अनात्मभूत होते हैं, परन्तु मेद या संथ करने से सब व्यवहार के अन्तर्गत माता है। व्यवहार साधन और निश्चय साध्यरूप है। यही बात गा० नं० १५९ पंचारितान्यमे मतलाई गई है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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