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________________ efere नोट fafe (सूक्ष्मता से) निर्धार किया जाय सो ज्ञान ( आत्मा ) में स्वाश्रित-पराश्रित ( निश्चयव्यवहारके लक्षणरूप ) आदि विकल्पोंका भीतर उठना और वचनोंद्वारा ( बाहिर ) कहना, यह सभी व्यवहार है ( अभूतार्थ है ) कारण कि वस्तु ( पदार्थ द्रव्य ) अनिर्वचनीय ( अवकव्य ) हैं एवं निर्विकल्प है, बहू सो सिर्फ ज्ञातव्य है अर्थात् ज्ञानकेद्वारा जामनेयोग्य है तथा जानी जाती है। तब से कहना उपचार है, पूरी नहीं कही जा सकती यह तात्पर्य है । अतएव सर्वथा ज्ञातव्य तो है किन्तु सर्वथा वक्तव्य नहीं है अथवा क्रमश: वन्य है और एकसाथ पूरी ( अक्रमसे ) वक्तव्य है । तब फिर उसमें लक्ष्य लक्षणका विकल्प ( खंड ) करना व व्यवहार है ( असत्य अभूतार्थ अशुद्ध है ) इत्यादि सत्यनिर्णय है । फलतः द्रव्ये या वस्तुएं सब जानने की है, कहने की नहीं है। यदि कहीं भी जाय तो पर ( शब्दों ) की सहायता लेनेसे व्यवहारपनाही सिद्ध होता है, यह खुलासा है, द्रव्यका लक्षण निम्न' प्रकार है । लक्ष्यलक्षणरूप भेदमें भी अभेद व भेद ६ यथा लक्ष्य और लक्षण दोनों एक साथ एकत्र रहते हैं, भिन्न २ नहीं रहते यतएव उनके प्रदेश या क्षेत्र या आधार एकही है [ अरूप है तथा उनके नाम आदि सब जुबे २ है ( भिन्न है) इसलिये अनेक हैं । फलतः स्वाद या अनेकान्तको अपेक्षासे कथंचित् अभेवरूप हैं और कथंचित् भेदरूप है, ऐसा निर्धार खुलासा सर्वत्र aar ना चाहिये । यही व्यवहार निश्चयकी संधि ( मित्रता ) है कि एकत्र साथ २ गौण-मुख्य रूपसे रहते हैं एवं निराET अपना-अपना स्वतंत्र कार्य करते हैं (सह अस्तित्वका परिचय देते हैं), वस्तु यह विशेषता है अर्थात् समान रूपसे सर्वथा भेदभाव रहित कार्य करनेका अवसर देना बड़ी भारी उदारता या अनुपम गुण वस्तुमें है। इसीलिये उसका 'वस्तु' ऐसा नाम रखा गया है, जिसमें समान्य विशेष आदि सभी बसते हैं । फलतः व्यवहार भी farers साथ (भेद भी अभेदके साथ ) कथंचित् उपादेय है, उपन्यसनीय है किन्तु सर्वथा उपन्यसनीय (बालFact ) और आचरणीय ( कर्त्तव्यरूप ) नहीं है, यह तात्पर्य है ( गा० ८ समयसार ) । निश्चय और व्यव हार में दोनों विकल्प हैं, जो संयोगी ( अशुद्ध } पर्याय में हुआ करते हैं अतएव पर्यायके भेद हैं, द्रव्यके नहीं हैं, एवं शोक भी हैं । सर्वदा आश्रयणीय ( अनुभवयोग्य ) नहीं हैं, आश्रयणीय एक अखंडद्रव्य ही है। विकल्प हे अपने में ही ज्ञानदर्शनचारिवादिरूप उठें या अन्यथोंके सम्बन्ध में उठें, सभी वर्जनीय व है है । जबतक आत्मायें एवं उसके शानश्रज्ञानचारिक आदि गुणोंमें निविकल्पता | खंडरहितता ) एकाकारता बनाम समाधि, उत्पन्न या प्रकट नहीं होती, वैसी परिणति आत्मा व गुणोंमें नहीं होती, तब तक कल्याण या साध्यकी fafa नहीं होती यह अटल नियम है । k यहां प्रश्न उठता है ? कि क्या लक्ष्य-लक्षणरूप विकल्पका उठना और उनका कथन करना सर्वथा असत्य या हैय है ? यदि है तो पूर्वपरंपरा क्यों ऐसी चली आ रही है ? इसका समाधान निम्नप्रकार है- सर्वथा असत्य नहीं है, कथं चित् है, अर्थात् जिज्ञासुके प्रश्मके अनुसार उसको समझाने के प्रयोजनसे लक्ष्य व लक्षणका जुदा २ कथन करना १. त सल्लाक्षणिक सन्मात्रे वा यतः स्वतः सिद्धम् । स्मादमिव स्वसहार्थ निर्विकल्प च ॥ ८ ॥ त्रध्याय ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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