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________________ १२३ শাল उपसंहार रूपमें--( इस प्रकरणमें लोक नं० २३ से ३० तक ८ श्लोक हैं ) सम्यग्दृष्टिमे रागद्वेष मोहका ही भिन्न २ प्रकार से त्याग कराया गया है यथा पहले श्लोकमें मोहका त्याग करना बतलाया गया है। २.....श्लोक में रागका त्याग करवाया गया है। ३-श्लोक में देषका त्याग करवाया गया है। ४...-इलोकमें अन्य धर्मियोंसे सम्पर्क छोड़ना बताया गया है ( उनमें रुचि करनेका निषेध है।। ५..वें एलोकमें धर्मरक्षा करना बतलाया गया है ( रागद्वेष छुड़ाया गया है । ६-श्लोक में अटल या दढ़ रहने को कहा गया है ( घबड़ाने का निषेष है)। ७-लोकमें धर्म और धर्मात्माओंसे निष्काम प्रीति करनेका उपदेश है । ८- श्लोकमें प्रभावना करनेका उपदेश है। विना प्रभावनाके उत्कर्ष नहीं हो सकता इत्यादि । सबका सारांश आत्मोन्नति करनेका ही है-- अवनसिके कारणोंको छोड़नेका है किम्बहुना । इस प्रकार आचार्यदेवने अङ्गी सम्यग्दर्शनके प्रत्येक अङ्गों। निशंकितादि ८ ) का वर्णन बहुत ही महत्व के साथ निश्चय व्यवहार द्वारा किया है जो एक अनुपम चीज है, परन्तु उसका अनुगमहर एक ममक्ष जीवको होना चाहिए, तभी वह अभीष्ट सिद्धि कर सकता है। अन्यथा नहीं यह लिया है। हमने यथाशक्ति रहस्यको समझ कर कुछ प्रकाश, विशेषार्थ के रूपमें आगे के पेजमें डाला है सो समझना चाहिये ।।३०॥ इति सम्यग्दर्शन अधिकार ( थावकधर्मान्तर्गत )। विशेषार्थ (मीमांसा) सम्यादष्टिके सम्यग्दर्शनमें निश्चयपना व्यवहारपना किस तरह घटित ( सिद्ध होता है ? इसका खुलासा किया जाता है। तथा वैसा न माननेसे क्या हानि व लाभ होता है यह भी बताते हैं । मूल या प्रारंभमें, मोक्षमार्गके उपयोगी सात तत्वोंकी अपेक्षा ( आधार ) लेकर या उनके सम्बन्धमें विचार करना अनिवार्य है, कारण कि उन्हीं के माध्यमसे निश्चय और व्यवहारका निर्धार मुख्य है और लाभदायक भी है ! उनसे भिन्न लौकिक सत्त्वोंकी अपेक्षा विचार करनेसे अभीष्ट सिद्धि नहीं होती। अतएव उनका विचार करना गौण माना गया है अस्तु । सम्यग्दर्शनका लक्षण - 'तरवार्थश्रद्धाने सम्यग्दर्शनम् ॥ २॥ सूत्र, उमास्वामी प्राचार्य ।' अर्य-जीवादि मात तत्त्वोंका सम्यक् अर्थात् विपरीत अभिप्राय या श्रद्धान रहित ( यथार्थभूतार्थ ) श्रद्धान होना या करना सम्यग्दर्शन' कहलाता है। इसीका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है। . तथा इसके विरुद्ध या अतिरिक्त प्रकार श्रद्धान करना, मिथ्यादर्शन कहलाता है यह सारांश है। इसी प्रसंग या सिलसिले में, निश्चयपना और व्यवहारपना-सम्यग्दर्शनमें निम्न प्रकार माना जाता है
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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