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________________ सत्याणुनत ११५... अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ हि अस्मिन् स्वक्षेत्रकालभाने: सदपि वस्तु निधियते ] यथार्थ में जहाँपर अपने द्रव्य क्षेत्रकाल भाव सहित वस्तु मौजूद हो (अभाव न हो। किन्तु कारणवश अर्थात् अज्ञान या प्रमाद (कषाय) ले ऐसा कह देना कि यहाँ पर नहीं है, अर्थात् सत्का अपलाप कर देना [ तस्वयममसरयं स्यात् ] उसको असत्यका पहिला भेद ( नास्तिरूप महा असत्य असत्य ) समझना चाहिये---वही पहिला भेद है [ यथा अत्र देवदत्तो नास्ति ] जैसे यह कहना कि यहाँपर 'देवदत्त' नामका कोई आदमी नहीं है, जबकि वह बराबर मौजूद है। इसका नाम लोक व्यवहार में सफेद झूठ है अथवा महा या बड़ा ( स्थूल ) असत्य है, धोखा देना रूप है, जिससे लोक में सजा या दण्ड मिल सकता है, लोकविरुद्ध है ।।२२। भावार्थ---सत्याणुनती ( देशवती) उस प्रकारका महा असत्य कदापि नहीं बोल सकता। यदि बोले तो उसका श्रत ( प्रतिज्ञा ) भंग हो जायगा । हो, वह छोटा असत्य { अणुरूप-सूक्ष्म ) बोल सकता है जो प्रयोजनभूत हो, पद ब अवस्था अनुसार आवश्यक या अनिवार्य हो, कारण कि गृहस्थाश्रममें आजीविका आदिके सभी काम तो करना पड़ते हैं, जिससे थोड़ा झूठ बोलना ही पड़ता है, परन्तु उसमें गो अरुचि रहती है, अतएव अल्पबंध होता है अधिक स्थिति अनुभागवाला बंध नहीं होता, सिर्फ अन्तःकोड़ा कोड़ी प्रमाण ही होता है। थोड़ा असत्य बोलना भी सत्याणुव्रतमें अतिचार (दोष ) है। इसके सिवाय संकल्पपूर्वक ( पेश्तरसे इरादा करके । असत्य बोलनेका निषेध है, नहीं बोलना चाहिये । वर्तमान परिस्थिति में जैसा मौका आदे वैसा वह कर सकता है। व्यापारी व्रती बहुत सन्देह या सममें पड़ जाते हैं कि कैसा करना चाहिये, कितना झूठ ( असत्य ) बोलना चाहिये ? उसका यह खुलासा समाधान है कि बिना संकल्प किये तत्काल . प्रयोजनभूत थोड़ा असत्य अरुचि या उदासीनतापूर्वक बोला जा सकता है किम्बहुना। व्यबहारनयसे अशुद्ध या संयोगी पर्याय में ब्राह्य मोटा (बड़ा स्थूल ) असत्य पापका त्याग चरणानुयोगके : चरणानुयोगके अनुसार करना अनिवार्य है। यद्यपि यह वचनाश्रित ( पराश्रित ) और संयोगी . पर्यायाधित होनेसे ब्यवहाररूप है तथापि योग व उपयोमको शुद्धिके लिये बह कर्तव्य है । अशुद्ध निश्चयनयसे परका संयोग छूटना या छुड़ाया निमित्तकारणका हटाना है अथवा अशुद्धता (पर्याय रूप ) का दूर करना है, जो उपयोगी है। निश्चयनयसे विचार किया जाय तो आत्मद्रव्य ( जीवमात्र ) कभी अशुद्ध होता ही नहीं है, वह कालिक शुद्ध अर्थात् परसे भिन्न एकल्वरूप है । उसका संसारावस्था में रहते समय कथन करना लाभकर नहीं होता एकान्त दृष्टि हो जाना संभव रहता है जो अज्ञानी जीव हैं। असल में पर्यायगत अशुद्धता निकालना आचार्योका लक्ष्य रहा है । अतएवं वही छोड़नेका उपदेश दिया है ।।१२।। आचार्य असत्यका दूसरा भेद बतलाते हैं । अस्तिरूप महा असत्यका कथन असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । तद् भाव्यते द्वितीयं तदनृतम स्मन् यथास्ति घटः ॥१३॥ HEE
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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